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प्रतिबिम्ब / उदय नारायण सिंह 'नचिकेता'

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देह में बहुत मैल जमि गेल छल,तें स्नान करै गेल छलहुं।
अवश्य, शताब्दीक अन्तहीन काल-ध्वनिक धिक्कारकें मुहूर्तक पवित्रता द' कए गोपन करबाक चेष्टा
अन्त धरि व्यर्थतामे पर्यवसित हैत कि नहि,
नहि जनैत छी ।

मान-मन्दिरक कसौटी पर मन-मन्दिरक परीक्षण करैत काल
दुर्बल, उच्चाभिलाषी देवाल कि ढहि नहि जेतैक ?

किन्तु अनन्तक आपाततः अन्तहीन गतिक अवरोध करैये टा पड़त।
दुरन्त चिरयौवनक काल-धारा जे मन्दाकिनी-स्रोत में प्रवाहित भ' कए
हमर सत्ताक ग्रास करबा लेल अबैछ,
तकरा जराक सुइया दियै टा पड़त।
नहि त', ई आविष्कार
जे दिग्दिगन्त में कीर्तित हैछ, मान-मर्दित आ'भूलुंठित हैत।
तखन त' प्रगतिक दमामा पर, चौप नहि पड़तैक ।

तें अहंकार-लिप्त हम
सब क्लेदकें धो कए
पोछि देबाक लेल गेल छलहुं,
यद्यपि नहि जनैत छलहुं - सभ्यताक विकाशानुशासनक ई प्रतिपन्थी हेतैक कि नहि !

अर्गल-रुद्ध स्नानागारक निर्भर धरातल
जल सँ भीजि गेल छलैक, जल में हमर प्रतिबिम्ब पड़ल,
कारी फ़र्श पर हमर स्वरूप-कथाकें
अव्यक्त रहबा में असुविधा नहि हेतैक।
नचार भ' कए साबुन देलहुं-
विज्ञानक दान कें देह में निष्पेषित केलहुं।
फेरो देखलहुं, पुनः वैह बिम्ब; किछु जल ताहि पर ढारलहुं।

और कत्तेक देर ?
बालटीक पानि शेष भेल ; शेष भेल हमर सामर्थ्य ।

थाम्हलहुं, देखलहुं-
हमर पूर्व-परिचित प्रतिबिम्ब प्रच्छन्न व्यंग्यक इंगित क' रहल अछि।