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प्रतिमा थी बामियान बुद्ध की / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
रथ रोको
सुनो पथिक !
इसी जगह प्रतिमा थी बामियान बुद्ध की
सदियों हम गुज़रे हैं
इसी राह से -
परिचित यह घाटी है
बुद्ध-पथ पुरातन यह
हाँ, कण-कण
पावन यह माटी है
पार इसी दर्रे के
दिखतीं थीं आकृतियाँ, हाँ, महान बुद्ध की
पर्वत का सीना यह
छलनी है -
इस पर ही मूरत थी
गड्ढा है जहाँ आज
वहीं कभी
करुणा की सूरत थी
वे दिन ही और थे -
धरती से अंबर तक थी उठान बुद्ध की
युग बीते -
सभ्य नए वक़्त में
बर्बर आघात हुए आम हैं
बुद्ध कहाँ से बचते
देख रहे हो सलीब पर
टँगी हुई शाम है
उस में ही छिपी हुई
पीढ़ी-दर-पीढ़ी की है थकान बुद्ध की