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प्रतिरोध / संध्या सिंह
Kavita Kosh से
पर्वत देता सदा उलाहने
पत्थर से सब बन्द मुहाने
मगर नदी को ज़िद ठहरी है
सागर तक बह जाने की
गिरवी सब कुछ ले कर बैठा
संघर्षों का कड़क महाजन
कर्तव्यों की अलमारी में
बन्द ख़ुशी के सब आभूषण
मगर नींद को अब भी आदत
सपना एक दिखाने की
मर्म छुपा है हर झुरमुट में
हर जड़ में इक दर्द गड़ा हैं
लेकिन मौसम की घुड़की पर
जंगल बस चुपचाप खड़ा है
मगर आज आँधी की मंशा
सब कुछ तुम्हें बताने की
सभी प्रार्थना-पत्र पड़े हैं
घिसी रूढ़ियों के बस्ते में
पता नहीं है लक्ष्य दूर तक
जीवन बीत रहा रस्ते में
पर पैरों ने शपथ उठाई
मंज़िल तक पहुँचाने की