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प्रतिश्रुत हूँ जीने को / उमाकांत मालवीय

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प्रतिश्रुत हूँ जीने को
कुछ थोड़े आँसू को
ढेर से पसीने को ।

मीरा सुकरात और
शम्भु की विरासत,
सादर सिर-आँखोँ पर
लेने की आदत
 
अमृत मिले न मिले
किन्तु ज़हर पीने को ।
 
पत्थर पर घन प्रहार
बड़ी अजब है सूरत,
आघातों से उभरी
आती है मूरत,
 
चोट खा निखरने के
सहज कटु
करीने को ।


झेलूँगा जून के
धूल भरे बवण्डर,
सह लूँगा आए जो
ठिठुरता दिसम्बर,
 
कैसे भूलूँ सावन
फाग के महीने को ।