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प्रतिस्पर्धा / प्रदीप कुमार
Kavita Kosh से
					
										
					
					अक्सर जब मैं 
कविता लिखता हूँ
वो झांकती है मेरे शब्दों में। 
जैसे निहारता है कोइ बच्चा
दिसम्बर के जाड़े में कोहरे से भीगे हुए 
गुलदाऊदी के फूल को। 
प्रेम में लिपटे हुए शब्दकोश की चासनी से
ओत।प्रोत 
मेरी कविता
यौवन की दहलीज पर 
अपने रूप सौंदर्य का
अद्भुत मकड़जाल बुनती हुई युवती की भांति
फांसने का प्रयास करती है 
किसी शुभेच्छु को। 
अजीब सौंदर्य प्रतिस्पर्धा है
मेरी कविता 
और उसमें।
 
	
	

