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प्रतीक्षाक कोन अन्त केहन आंरम्भ / प्रवीण काश्‍यप

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कखनहुँ-कखनहुँ कोनो पथक
महता कतेक बढ़ि जाइत छैक
जड़वत् पड़ल ओकर धूरा-पाथर पर्यत
कतेक जीवन्त भऽ जाइत छैक!
नहुँ-नहुँ डेगक रूनझुन सँ
कोन चैतन्यक संचार होइत छैक जे
सभ जड़-चेतन हमर एतेक
आत्मीय भऽ जाइत अछि
केन्द्रित भऽ जाइत अछि
हमर सभ तंत्र मात्र एकेठाम।
किछु कालक लेल टकटकी लगौने
मन रहैत अछि ठाड़ एकेठाम!

मुदा कतेक काल धरि
रहत ई संचार?
कखनहुँ तऽ करहि परत
मूल सत्य स्वीकार!

पथ तऽ बड छोट अछि
आ भावना अनन्त, विचार अनन्त्!
कतेक जल्दी सभ बात भऽ जाय
एहि ओझरौहटिमे
वंचित भऽ जाइत छी
क्षणिक प्रेमालाप सँ!
अन्तमे भेटैत अछि मात्र शून्य!
हमर कायरता-अपौरूषक फल शून्य!

नहुँ-नहुँ डेग सँ केओ
आगू बढ़ि रहल अछि
रस्ताक कोन दोष
ओ तऽ जड़ अछि।
ओ तऽ समाप्त होएबे करत
सान्त जे अछि!
रस्ता समाप्त, संचार समाप्त!
फेर शूरू होयत प्रतीक्षा
साँझ होओ, भोर होओ
क्रम बदलैत रहत, मुदा
रहत प्रतीक्षा शाश्वत, अमर!