प्रतीक्षारत / सुरेन्द्र रघुवंशी
याद के रास्ते में न चट्टानें आईं न पर्वत
और न नदी आई न सागर
जैसे ये सपनों के रास्ते में भी नहीं आए
भट्टी की तरह तपते और सूखे दिनों में मैंने घनघोर बरसात के सपने देखने नहीं छोड़े
स्मृतियों की सफ़ेद बर्फ़
कल्पनायुक्त विचार के ताप से पिघलकर संकल्प की नदी बनकर तुम्हारी ओर बहती है
और रास्ते के अवरोध को मान्यता नहीं देती
प्रेम की आवारा हवाएँ
किसी मौसम की मोहताज़ नहीं होतीं
इच्छाओं की बदलियाँ बरसकर मिटा देती हैं
ह्रदय के सन्ताप को
अभी जो उमड़ रहीं हैं मेरे मन के आकाश में
तुम्हारा बाहरी दिखावा मात्र है
इनकी गर्जनाओं और मनमोहक दृश्यों को
यूँ ही अनसुना और अनदेखा करना
हे विरहाग्नि में जलती हुई धरती ! सच यह है
कि तुम खुद प्रतीक्षारत हो प्रति पल
अपने सावन की वर्षाकुल झड़ी के लिए