भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
प्रतीक्षा-2 / अनिरुद्ध प्रसाद विमल
Kavita Kosh से
अरी, ओ बसंत केकी
आम्र मंजरियों के बीच बैठी
कू-कू की शोर मचाती
तुम किसकी प्रतीक्षा में हो ?
कौन है तेरा वह ?
जिसे सदियों से तुम्हारी खबर नहीं है।
बरसों से पी-पी की रट लगाता
यह पपीहा किसे पुकार रहा है ?
कौन है वह ?
जिसने तुम्हारे स्वर में
आकंठ पीड़ा भर दी है
और अब तो मेरा विश्वास
मात्र केकी और पपीहा पर ही रह गया है।
तुम भी प्रतीक्षा करो प्रिये
तुम्हारे ही धैर्य में
सेबाती की चातकी का प्राण बसा हैं
भय, संशय और निराशा से
ऊपर उठो मेरे मीत
समय की शिला पर
तुम्हारा भी नाम अंकित है।