भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रतीक्षा तेरी / ओम पुरोहित ‘कागद’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रे जल!
सोच जरा
कितनी करती रही है
प्रतीक्षा तेरी
यह धरा।

इसके बदन पर
यह धोरे नहीं
नासूर है
जो बन गए है
प्रतीक्षा की कुंठा में
और तू है कि टंगा है
आसमान में
घुमता है चारों कूंट
गुजर जाता है कई बार
ऊपर से भी इस के
पावना बन भी
नहीं आता इसके द्वार।

तेरे पगफेरे से
दमक उठेगा
इसका बुढ़ाया दामन
उतर के तो देख
सिर्फ एक बार।