प्रतीक्षा / प्रताप नारायण सिंह
अंतर्मन में आस मिलन की, निश-दिन तुम्हीं जगाते हो।
नित्य प्रतीक्षारत रहता हूँ, किन्तु नहीं तुम आते हो।।
हिय-आँगन को श्रद्धा-जल से, रोज बुहारा करता हूँ।
नेह, समर्पण के पुष्पों से, उसे सँवारा करता हूँ।।
भावों की वीणा को कसता, नव संगीत सुनाने को।
बोल वंदना के धरता हूँ, निज अधरों पर, गाने को।।
अपलक राह निहारा करता, पर निराश कर जाते हो।
नित्य प्रतीक्षारत रहता हूँ, किन्तु नहीं तुम आते हो।।
ढ़लने लगता सूर्य गगन में, पुष्प सभी मुरझा जाते।
मेघ निराशा के कुछ श्यामल, हिय-अम्बर पर छा जाते।।
झंकृत हो वीणा, पहले ही, तार शिथिल होने लगते।
गुंजित होने से पहले ही, बोल सभी खोने लगते।।
आने का आभास कराकर, सदा मुझे भरमाते हो।
नित्य प्रतीक्षारत रहता हूँ, किन्तु नहीं तुम आते हो।।
घिर आती रजनी आँगन में, घोर अँधेरा छा जाता है।
एक दिवस फिर बिना तुम्हारे, यूँ बेकार चला जाता है।।
हृदय व्यथित हो उठता अतिशय, आँखें भर भर आती हैं।
फिर भी नभ में आशाएँ कुछ, तारों सी मुस्काती हैं।।
नीरवता को चीर, कहीं से, तुम पदचाप सुनाते हो।
नित्य प्रतीक्षारत रहता हूँ, किन्तु नहीं तुम आते हो।।