प्रतीक्षा / शिवदेव शर्मा 'पथिक'
सच कहता हूँ इस जीवन में मैंने तुमको जितना चाहा
तुमने उतना चाहा होता तो यह जीवन भार न होता
साथ तुम्हारे रहने पर होता मेरा हर मौसम फागुन
फूलों से जलन नहीं होती पतझड़ से प्यार नहीं होता
तुम मौन रही, मैं प्रश्नों की
रेखा पर उमर गुज़ार गया
आवाज न तुम तक पहुँच सकी
सौ बार तुम्हारे द्वार गया
तेरी यादों की मूरत पर मैंने जितने आँसू ढाले
उतना तो मंदिर में पूजक नदियों के नीर न डालेगा
अपनी इन भीगी पलकों में मैंने जितने सपने पाले
उतना क्या कोई चातक भी सावन के सपने पालेगा?
पावस के रिमझिम स्वर में भी
मैं हीं तो तुम्हें पुकार गया
आवाज़ न तुम तक पहुँच सकी
सौ बार तुम्हारे द्वार गया
मैं नाम तुम्हारा सूने में प्रिय! जितनी बार पुकार गया
उतना तो कभी पपीहा भी 'पी' कहकर नहीं पुकारेगा
जलने की पीड़ा भोगी है मैंने जितनी धीरे धीरे
क्या पंख जलाकर शलभ प्रेम पर इतनी देर विचारेगा
कोयल जितना हीं कूकी है
उतना हीं तुम्हें उचार गया
आवाज़ न तुम तक पहुँच सकी
सौ बार तुम्हारे द्वार गया।
अपने मन की खिड़की खोले मैं जितना पंथ निहार गया
राधा भी अपने मोहन की उतनी क्या बाट निहार सकी?
हर काँटे-काँटे से जाकर जो दर्द उधारा है मैंने
उतनी पीड़ा तो यमुना से गोपी भी नहीं उधार सकी
मैं सात रंग के सपनों से
छवि तेरी सदा सँवार गया
आवाज़ न तुम तक पहुँच सकी
सौ बार तुम्हारे द्वार गया
सच कहता हूँ इस जीवन में मैंने तुमको जितना चाहा
पूनों के जगमग चन्दा को सागर के ज्वार न चाहेंगे
मन के सरगम पर गीतों को मैं जितनी बार रुला आया
गायक अंगुलियाँ फेरेगा वीणा के तार न गाऐंगे
खोया तेरी तस्वीरों में
अपना हीँ रूप बिसार गया
आवाज़ न तुम तक पहुँच सकी
सौ बार तुम्हारे द्वार गया
मैं कितना जगा प्रतीक्षा में किसलिए सितारे जागेंगे?
जितने गाए हैं गीत न कोई पगली बुलबुल गाएगी
मन की शाखों पर फूल खिले, जितने दर्दीले गीतों के
सौ-सौ बासंती क्या उतने रंगों के फ़ूल खिलायेगी?
मेरी हीं आँखों का शबनम
चुपके आकाश पसार गया
आवाज़ न तुम तक पहुँच सकी
सौ बार तुम्हारे द्वार गया
मैं एक प्रतीक्षाकुल प्रेमी तुम भी पत्थर की देवी हो
जब तक चलती है साँस तुम्हें कैसे मैं नहीं पुकारूंगा
चाहे जैसे भी हो, तुमको मैं मोम बनाकर छोड़ूँगा
आँखों के दीपक जला-जला तेरी आरती उतारुँगा
कल सोच नहीं लेना ऐसा
तुम जीत गई मैं हार गया
आवाज़ न तुम तक पहुँच सकी
सौ बार तुम्हारे द्वार गया।