प्रत्यक्षदर्शी / कल्पना पंत
झूठ के
गवाह कौन हैं ?
सत्य कहाँ मौन है ?
सुना है कि गुप्त द्वारों में
कई-कई हाथ, आँख, कान और नाक
निकल आए हैं –
कुछ दशकों में
कई जोड़ी पाँव
बे - चेहरे कई - कई दाँव
सुना है कि तेज़ भागती ज़िन्दगी
सिक्कों और अदृश्य तख़्त - ए - ताउसों की होड़ में
ज़िन्दगी को पीछे छोड़ आगे निकल आई है,
हमारी महत्वाकाँक्षाओं की सीढ़ियाँ !
हमारी ही अगली पीढ़ियाँ
अंकों के ऊँचाई पर पहुँच
अख़बारों की सुर्ख़ियों में छा
अगले बरस इतिहास हो जातीं हैं
चन्द तराशे परिणामों की चमक में
बहुत सी अनमोल सम्भावनाएँ धूमिल पड़ जाती हैं,
सब ओर तैनात सुख स्वप्नों के सौदागर
रंग - बिरंगे पोस्टर टाँगे चलते हैं…..
उनकी ज्वाला में नौनिहाल जलते हैं
सोच रही हूँ..
तुम किनके हो मेरे देश ?
पापारात्ज़ी जिनकी एक्सक्लूसिव तस्वीरों की जुगत में हैं ?
या जो रोज़ सुबह से साँझ तक जीने की साँसत में हैं
इसलिए जब मैं लिखना चाहती हूँ खेत
सुदूर फैल जाती है रेत
हस्तियां मनाती है मंगल
दूर तक उजड़े दीखते हैं जंगल
नदी किनारे सजते हैं शामियाने
लुट जाते हैं प्रकृति के आशियाने
लहराते हैं रेशमी परिधानों के सँजाल
पीछे झाँकने लगते हैं कँकाल
एक ट्रेन धड़धड़ाती हुई गुज़र जाती है
और पटरी पर रोटियाँ छितर जाती हैं ।