प्रत्यावर्तन / बुद्धिनाथ मिश्र
सिर्फ़ सोने से सजाई देह मैंने आज तक
आज मुझको फूल-पत्तों से सजाने दो इसे ।
एक तापस राम था मन--देख सोने का हिरन
जंगलों भटका बहुत,यह भूल थी या सादगी !
वह छलावा था खुशी का, या कि था झूठा अहं
पत्थरों इतनी लदी, दम तोड़ बैठी ज़िन्दगी
बाँध लेगी मुट्ठियों में चाँद-तारे उम्र यह
बस हथेली पर जरा मेंहदी रचाने दो इसे।
ज़िन्दगी को चाहिए क्या? धूप जल मिट्टी हवा
आज तक बेचा न वह मालिक जिसे बाज़ार में
मोल जिनका है अधिक, वे तो ज़रूरी भी नहीं
साँस की पूँजी गँवाई व्यर्थ के अधिकार में
यह शहर आदी नहीं है गोलियों की नींद का
आज फिर से लोरियाँ गाकर सुलाने दो इसे ।
याद आई हैं मुझे पीले कनेरों की सुबह
आँसुओं का अर्थ भूली शाम के कुहरों तले
तोड़ लेने दो हँसी के दूधवाले वृक्ष से
छंद के पत्ते हरे, फल प्रार्थनाओं के फले
ज़िन्दगी कब तक रहेगी झील-सी ठहरी हुई
इन मुखौटों से हँसा झरना बनाने दो इसे ।