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प्रत्यूष के क्षीणतर होते / अज्ञेय

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 प्रत्यूष के क्षीणतर होते हुए अन्धकार में क्षितिज-रेखा के कुछ ऊपर दो तारे चमक रहे हैं।
मुझ से कुछ दूर वृक्षों के झुरमुट की घनी छाया के अन्धकार में दो खद्योत जगमगा रहे हैं।
नदी का मन्दगामी प्रवाह आकाश के न जाने किस छोर से थोड़ा-सा आलोक एकत्रित कर सीसे-सा झलक रहा है।
मैं एक अलस जिज्ञासा से भरा सोच रहा हूँ कि जो अभेद अन्धकार मुझे घेरे हुए है, मुझ में व्याप्त हो रहा है और मेरे जीवन को बुझा-बुझा देता है, उस की सीमा कहाँ है!

28 नवम्बर, 1932, दिल्ली जेल