प्रथमहि सुंदरि कुटिल कटाख / विद्यापति
प्रथमहि सुंदरि कुटिल कटाख। जिब जोखि नागर देअ दस लाख।
केओ देअ हास सुधा सम नीक। जइसन परहोंक तइसन बीक।
सुनु सुंदरि नव मदन-पसार। जनि गोपह आओब बनिजार।
रोस दरसि रस राखब गोए। धएलें रतन अधिक मूल होए।
भलहि न हृदय बुझाओब नाह। आरति गाहक महंग बेसाह।
भनइ विद्यापति सुनह सयानि। सुहित बचन राखब हिय आनि।
[नागार्जुन का अनुवाद : सुंदरी, पहली चितवन पर ही वह तुम्हें दस लाख दे देगा। क्योंकि वह भारी रसिया है। वह तो नटनागर है, पक्का छैलबिहारी। हां, कोई-कोई तो ऐसे अवसरों पर हास-परिहास का ही अमृत वितरण कर देती है। शुरू शुरू में जैसा शुभ-लाभ (बोहनी) होता है, बिक्री उसी धड़ल्ले से चलती है। सुंदरी, तुम्हारी तो नयी नयी दुकान है, छिपाकर माल को न रखो। व्यापारी आने ही वाला है। ऊपर ऊपर तो भले ही रोष (कड़ापन) जाहिर करो, अंदर की कोमलता (रस) छिपाये रखना। जुगाये हुए रतन का दाम ज्यादा ही मिल जाता है। दिल की बात प्रगट न होने देना। गाहक गर्जमंद होता है तो निश्चय ही सौदा महंगा लेता है। विद्यापति कहते हैं, 'तुम तो बड़ी सयानी हो, अपनी भलाई की बातें हृदय में सुरक्षित रखना!']