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प्रथम उमंग / रसरंग / ग्वाल

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कवित्त

येरे मन मेरे, तेरे काज सब सिद्ध होंय,
सिद्धि-निद्धि साज होंय, सो इलाज करिये।
कोटि-कोटि चंद जाकी दुति के समान हैं न,
पिता बृषभान जाके, ऐसो ध्यान धरिये।
‘ग्वाल’ कवि त्रिभुवनपति की परमप्रिया,
बिधि-बिधि ब्रजलीला हेतु उर भरिये।
महिमा अगाधा, पल आधाहू न बाधा रखै,
ऐसी सिरी राधा, ‘राधा-राधा’ नाम ररिये॥1॥

दोहा

नवरस में सिंगार की, पदवी राज बिसाल।
सौ सिँगार रस के प्रभू, हैं श्रीकृष्ण रसाल॥2॥
सो श्रीकृष्ण रसाल की, कहिये धन मन प्रान।
जिनकी लीला गायकै, तरत जु सकल जहान॥3॥
यातें श्रीमत राधिका, सरवोपरि जु अभंग।
तिन पद प्रनमि सु ‘ग्वाल’ कवि, रचत ग्रंथ ‘रसरंग’॥4॥
बृंदावन तें मधुपुरी, किय सुख-वास प्रमानि।
बिदित बिप्र बंदी बिसद, नाम ‘क्वाल’ कवि जानि॥5॥
नौहू रस के भेद सब, बरनत सहित उमंग।
राधाकृष्ण चरित्रमय, रसिकन को ‘रसरंग’॥6॥

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संवत वेद ख निधि ससी, माधव सित पख संग।
पंचमि ससि कों प्रकट हुअ, ग्रंथ जु यह ‘रसरंग’॥7॥
बरनन करिहैं रसन को, रस भावन तें होत।
यातें आदि ही भाव को, लक्षन करत उदोत॥8॥

भाव लक्षण

जनक जासु को मन कहें, जन्य जु कछू विकार।
ताकों कहियत भाव हैं, कविन कियो निरधार॥9॥
भाव सु चार प्रकार हैं, कहियत प्रथम विभाव।
पुनि कहि थाई भाव को, लिखिहों फिरि अनुभाव॥10॥
पुनि संचारी भाव सो, द्विविध होत कवि ईस।
मन सहाय सों, तनज बसु, मनज कहत तेतीस॥11॥

विभाव लक्षण

हेतु रूप औ बुद्धि कर, रस को सो जु विभाव।
सो द्वै बिधि इक अलंबन, द्वितिय उद्दीपन गाव॥12॥
थाई भावन को जनक, सो आलंबन जानि।
थाई को दीपित करै, सो उद्दीपन मानि॥13॥
इक-इक रस के अलंबन, उद्दीपन बहु होत।
यातें संग जु रसन के, कहिहैं सबै उदोत॥14॥

स्थायीभाव लक्षण

आलंबन तैं जनित जो, बीज रूप दरसाय।
अटल, अपरिपूरन रहै, सो थाई नौ गाय॥15॥

सोरठा

रति हाँसी अरु सोक, क्रोध उछाह’रु भय बहुरि।
ग्लानि जु विस्मय ओक, नवम कहत निरवेद कों॥16॥

रति स्थायी लक्षण (दोहा)

पिय कों लखि-सुनि काममय, मानस जनित विकार।
अपरिपूर्न लों कीजिये, रति थाई उच्चार॥17॥

यथा (कवित्त)

ताकें ता तिया को, मन मेरो गयो लंक पर,
निकसि तहाँ ते धँस्यो त्रिबली-प्रभा मंे री।
रोम-अवली में उच्च कुच में सरुचि लसि,
सकुच न कीन्हीं लूम्यो हेम की हरा में री।
‘ग्वाल’ कवि उचकि, उहाँ ते अधरा पै गयो,
नासिका चढ़त, गिर पर्यो कौन थामें री।
नथ हलका में, मलामल गलका में अलि,
लूमि भलका में रह्यो रूमि भलका में री॥18॥

हास्य स्थायी लक्षण (दोहा)

करन कुतूहल को जहाँ, और बेस-बच होय।
तिहि लखि-सुनि, उपजै कछुक, हाँसी थिति सो जोय॥19॥

यथा (सवैया)

उठि भोरहिँ लाल जगाय लियो, दियो माखन औ’ दुलरावत सी।
उन माय को आनन पोत्यौ सबै, खरी खेल-कला सरसावत सी।
कवि ‘ग्वाल’ सिताई सही तिय में, पै कछू इक भौंह चढावत सी।
अलि आँख बचाय जसोमति की, मटकी मुख कों विकसावत सी॥20॥

शोक स्थायी लक्षण (दोहा)

मिलन आस तें रहित जो, इष्ट वियोग सु होय।
लखि-सुनि अपर विभाव भव, सोक सु थाई होय॥21॥


यथा (कवित्त)

जुज्झ माँहि रिच्छन के जुथ्थ चब्बि-चब्बि डारे,
बंदरन दब्बि डारे, मारि पब्बि मूठी है।
‘ग्वाल’ कवि त्यों ही राम-बान घुट्टि-घुट्टि छिद्यो,
छूट्यो प्रान ताको, हाल खबरि यों उठी है।
काहू कीन्हीं अर्ज दसमथ्थ सों, समथ्थ सुनो,
आज कुंभकर्न गर्ज, ढोरै अच्छ रुद्दित-से,
बोल्यो पथ्थ-पथ्थ पूछो साँची है कि झूठी है॥22॥

क्रोध स्थायी लक्षण (दोहा)

उपज अवज्ञा आदि तें, लखि-सुनि हर्ष अराति।
इमि विकार जो अपुर है, क्रोध सु-थिति कहि जा।ि।23॥

यथा (कवित्त)

बनिकै बडोई समरथ्थ जोर जोम मस्यो,
आयो सुग्रीव नग्र, जहाँ कपि छाये से।
कीक दै-दै क्रुद्धत बिरुद्धबद्ध बुद्धि जाकी,
जुद्ध को चहत भाखै वाक्य गरुआये से।
‘ग्वाल’ कवि बोल्यो बालि, है सुग्रीव निरलज्ज,
मज्ज-भज्ज गयो छै ही मुष्टि के चलाये से।
त्यों ही कही दूत लायो रच्छको तपी द्वै तुच्छ,
पच्छ सुनि भये कछु अच्छ अरुनाये से॥24॥

उत्साह स्थायी लक्षण (दोहा)

जुद्धादिक के अलंबन, जुदे-जुदे सुनि-देख।
होय विकार अपूर जो, थिति उत्साह सु लेख॥25॥

यथा (कवित्त)

सागर के तट बैठि रघुवर उच्चरत,
ढील बिन नल-नील, बाँधो कई सेत हैं।
हांेहु कब पार, रार जोरों दैत्य जुत्थन सों,
देखों कुंभकर्नादिक, कैसे जुद्ध केत हैं।
‘ग्वाल’ कवि कौन दिन, जुटौं दसमथ्थ सों मैं,
देखों बीस हथ्थ कैसे, सस्त्रन समेत हैं।
ह्वै हैं यों प्रफुल्लित, उठावैं धनु गह-गह,
तक्किकै अटक्कि फेरि धरि-धरि देत है॥26॥

भय स्थायी लक्षण (दोहा)

भयकारक जु पदार्थ लखि, सुनि उपजै जु विकार।
पूरनत्व बिन ताहि कों, भय थाई निरधार॥27॥

यथा (कवित्त)

कृष्ण-बलदेव सब सखन को संग लै कै,
चले नग्र देखनि, निसंक ख्याल खुट्टिगो।
रजक के वस्त्र लूटि, आगे सै बराय लीन्हें,
चंदन के लत कुबजा को कुब्ज छुट्टिगो।
‘ग्वाल’ कवि सुन्यौ नृप-द्वारे धनु विकराल
जायकै चढायो सो सराक वह टुट्टिओ।
ताके करराहट को सुनि तरराहट त्यों,
कंस को कछूक घबराहट सो जुट्टिगो॥28॥

ग्वालिन स्थायी लक्षण (दोहा)

घिन जिन तें है जनित तिहि, तकि-सुनि भव जु विकार।
बिन पूरन ता कहत हैं, थाई ग्लानि प्रकार॥29॥

यथा (कवित्त)

दौपदी की देह तें दुकूल को दुसासन ने,
खेंच्यो दुहूँ हाथन पै खेंच्यो सब नहिँगो।
ताही समै बिबस सु भीम ने प्रतिज्ञा करी,
तो मैं भीम याकों पियों श्रौन जो पै लहिगो।
‘ग्वाल’ कवि समै पाय, जुद्ध में पछारि ताहि,
छाती चढ़ि फार्यो तन, काहू पै न कहिगो।
जानि कै अभच्छ श्रौन, रुकि-रुकि जात भीम,
मानिकै प्रतिज्ञा, कछू पीयो, कछु रहिगो॥30॥



विस्मय स्थायी लक्षण (दोहा)

दृग-श्रुति-जोग भयो न सो, चमत्कार सुनि-देख।
है विकार उपजै अपुर, विस्मय थाई लेख॥31॥

यथा (सवैया)

पूतना के उर पै लखि पूत, उठाय लियो जसुधा करि प्यार है।
कैसे बच्यो या करालिनि तें, न दब्यो कितहूँ बड़ भाग हमार है।
यों कवि ‘ग्वाल’ चकी-सी कछूक, कहै जिय आवत एक बिचार है।
राखनहार है राम जिन्हें, तिन्हें को तिहुँ लोक में मारनहार है॥32॥

निर्वेद स्थायी लक्षण (दोहा)

जगत असत लखि-सुनि उठै, विरकतत्व जु विकार।
अपरिपूर्न लों ताहि कों, थिति निरवेद उचार॥33॥

भाखत है कवि ‘ग्वाल’ बिचार, सु केवल माया को ख्याल खग्यो है।
जक्त तें अन्य लखें ते अबै, कछू चित्त विरक्त सो होंन लग्यो है॥34॥

अनुभाव लक्षण (दोहा)

मन विकार उपजनि जु है, जिहि करि जानी जाइ।
सो अनुभाव उचारहौं, ग्रंथन के समुदाइ॥35॥
इक-इक रस के होत बहु, लिखें रसन के संग।
द्रिष्ट मुख्य अनुभाव हैं, बोधै तुरत प्रसंग॥36॥

संचारी भाव

सब रस में बिचर्यो करै, संचारी सो जान।
बिभिचारी हू कहत हैं, याही कों गुनवान॥37॥
संचारी सो द्विबिध हैं, तनज-मनज करि पाठ।
मन सहाय संबंध सों, तन भव सात्विक आठ॥38॥

सात्त्विक भाव

जीवित तन कों सत्त्व कहि, तातें पगट जु होय।
सो वह सात्विक भाव है, बरनत बुधवर लोय॥39॥

(चौपाई)

स्तंभ स्वेद रोमांच बखानो। पुन स्वरभंग रु’ कंप सु जानो।
बिबरन अश्रु सु प्रलय प्रमानो। ये बसु सात्विक भाव सु मानो॥40॥

(दोहा)

पाँचौं इंद्रिन जोग तें, इक-इक प्रगटत जाँच।
चक्षु श्रोत्र पुन घ्रान कहि, रसनात्वक यों पाँच॥41॥
पाँच-पाँच बिधि तें प्रगट, होत जु सात्विक भाव।
इमि चालिस बिधि मैं किये, नूतन बिधि बरनाव॥42॥

स्तम्भ लक्षण

रस बिषाद बिसमय हरष, दुख भय प्रीति अधार।
गमन रुकन कों कहत हैं, स्तंभ भाव उर धार॥43॥

यथा (कवित्त)

चंपक बरन वारी, होंस हुलसन वारी,
हंस सी चलन वारी, प्रेम-रस पोखी सी।
आलिन सों चौसर मचाई ही सुजान प्यारी,
बीच-बीच तान लेत जात, अति चोखी सी।
‘ग्वाल’ कवि ताही समै, बाँसुरी बजाई कान्ह,
सुनत प्रमान भई, तिय गति ओखी सी।
अचल बनावै चख चंचल चलावै अली,
आपै ह्वै गई है वह अचल अनोखी सी॥44॥

स्वेद लक्षण (दोहा)

स्रम रिस मुद भय मूरछा, मन-संताप रु’ घात।
पीड़ा लाजादिक कहें, आलंबन सरसात॥45॥
किहूँ हेतु तें तन विषै, कढ़ि आवै जो बारि।
तासों स्वेद कहें सबै, पंडित सुकवि बिचारि॥46॥

यथा (कवित्त)

गोरी-गोरी ग्वालनि में, रूप-गुन-गरबीली,
अति चमकीली, नहिँ अंग सँवराये हैं।
महकै महल जाकी तन की सुगंध ही सों,
जानि कै सुमन, भौंर-भौंर दौरि आये हैं।
‘ग्वाल’ कवि लाल को सुनत बोल लोल भई,
मुख पै अतोल बारि-कन घन छाये हैं।
मानो कामदेव एक बिकसे कमल पर,
मुकता अमलदल दल पै जमाये हैं॥47॥

पुलक लक्षण (दोहा)

क्रोध हर्ष भय आलिंगन, सीतादिक में होय।
रोमन को उठि आइबो, पुलक कहावै सोय॥48॥

यथा (कवित्त)

आयो सोंही साँवरो अनूप रूप वारो इतै
बंसी में रसीले कैसे गाय रह्यो गीत है।
तब ही तें तेरी गति, और-सी तकाई परै,
दुरै ना दुराई कछु रीति अनरीति है।
‘ग्वाल’ कवि तेरो ही सरीर है चुगलखोर,
रोम उठि आये चहुँ ओर कैसी भीति है।
सीत है न सोहनी, न भीत है किहूँ को कछू,
सौ बिसै प्रतीति होति, तेरो यह मीत है॥49॥


स्वरभंग लक्षण (दोहा)

हरष क्रोध भय मद बिरह, आलंबन इत्यादि।
स्वाभाविक स्वर बदल तें, कह स्वरभंग अवादि॥50॥

यथा (कवित्त)

बालम बिदेस जाइबे की सुनी बात बाल,
तब तें बिहाल-सी बिसरि गयो बाँक री।
द्वैक दिन पाछै, लाल कही जलजातनैनी,
अब हम जात, दिये जात औध-आँक री।
‘ग्वाल’ कवि सुनत इतेक रही अक्क-चक्क,
धक्क-धक्क माँची अवलोकि गली साँकरी।
बिरह उभरि आयो, गरो खरो भरि आयो,
बोल ना सम्हरि आयो, हाँ करी न, ना करी॥51॥

वेपथु लक्षण (दोहा)

गद रिस आलिंगन हरष, भय सीतादिक धार।
हलन कछू छिन कंप सो, बेपथु यही बिचार॥52॥

यथा (कवित्त)

राजत ही फेन-से फरस पर फूल भरी,
रूप की अतूल दुति मूल सी परत है।
चामीकर चंपक से गात पर धारी घन
सारी मिहीं सोसनी जु रंग उभरत है।
‘ग्वाल’ कवि त्यों ही मीत आयो ताके छायो प्रेम,
तन थहरायो सो न क्योंहू उसरत है।
मानो घनस्याम-से ये चंचला चलाकी भरी,
चमकि-चमकि चकचौंधा सो करत है॥53॥

वैवर्ण्य लक्षण (दोहा)

मेह सीत स्रम अप्रिय भय, क्रोध सुरति तें होत।
बदलि जाय तन रंग जहँ, करि बैबर्न्य उदोत॥54॥

यथा (कवित्त)

मंजुल मुकुट धरे, मोर के पखौअन को,
अब ही इतै ह्वै गयो, गौअन के संग है।
तेरी ही तरफ वह, ताकत गयो हो गोरी,
गावत गयो हो कछू प्रेम को प्रसंग है।
‘ग्वाल’ कवि नज़र लगौंही तें तकी ही तुहू,
तब ही तें तेरो, होय रह्यो मन भंग है।
अैरै रंग, औरै ढंग, औरै ही उमंग अंग,
औरै भयो रग तऊ दुरै तोहि रंग है॥55॥

अश्रु लक्षण (दोहा)

सीत दुख इकटक विरह, धूम जृंप औ’ सोक।
भ्रम भय रिस हरषादि कहि, आलंबन अवलोक॥56॥
लोचन तें जल की स्रवन, ताकों अश्रु सुजान।
विद्यावान बदै सबै, ग्रंथन में परिमान॥57॥

यथा (कवित्त)

कीरति की कुँवरि किसोरी गोरी प्रात आय,
आज मेरे संग गई जमुना नहान कों।
आधी इक दूर पै तमासो एक देखो अली,
मिल्यो गली साँकरी में, कान्ह लेत तान कों।
‘ग्वाल’ कवि दोउन की नज़र हँसौंही मिली,
दृग जलकन छाये सुंदरी सुजान कों।
मानो कंज जलजपने के बंधु बूमिकर,
चंद तें सिलाये लाय-लाय मुकतान कों॥58॥

प्रलय लक्षण (दोहा)

प्रीति सोक गद हर्ष पुनि, विरहादिक तें होत।
तन चेष्टा की रुकनि जो, सो करि प्रलय उदोत॥59॥


यथा (कवित्त)

द्वै घ्ज्ञरी तें दधि कों बिलोवत ही रूपरासि,
आसपास आलिन की हुती उहाँ भीर है।
तानें तक्यो तोहि, तब ही तें तकै इकटक,
ए रे जसुधा के भलो भयो जादू मीर है।
‘ग्वाल’ कवि वह तो न डोलै है, न बोलै कछू,
साधत न चोलै है न, बिसुधि सरीर है।
कंचन की मूरति बनाई पै न आई मन,
तब लिखी मानो मैन, रति तसवीर है॥60॥

जृम्भा लक्षण (दोहा)

भरत लिखे सात्विक बसुहिँ, पै इक जृंभा और।
‘रसतरंगिनी’ में लिख्यो, भानुदत्त निज तौर॥61॥
कहूँ आदि कहँ अंत में, नींद अमल के जान।
काम संबंधादिकन में, उपजत जृंभा भान॥62॥
छिन इक मुख को खुलि रहन, मिटै विकार मुदाय।
जृंभा ताको जानिये, बसु तें जुदा लखाय॥63॥

यथा (कवित्त)

जगा जोति जैसी समैदानन की चहुँ ओर,
जैसोई जवाहर की ह्वै रह्यो उजासा है।
ब्यारु करि विमल बिछौना पै बिराजी बाल,
लाल लगी सिरफ तिहारी ताहि आसा है।
‘ग्वाल’ कवि अब जमुहाई वह एक बार,
सुनो सुकुमार मोहि जैसो भाव भासा है।
मानो चंद बीच में ते, चिर चमकाय बीजु,
फेर जुरि गयो यह अजब तमासा है॥64॥

मन संचारी भाव (चौपाई)

प्रथम कहत निरवेद गिलानी। संका बहुरि असूया आनी॥
मद श्रम आलस दैन्य दिखाऊँ। चिंता मोह सु धृति फिर गाऊँ॥65॥
सुमृति सु ब्रीड़ा अरु चपलाई। हर्ष अवेग सु जड़ता गाई॥
गर्व बिषाद औत्सुक राखौं। निद्रा अपरस्मार पुनि भाखौं॥66॥
पुनि सुसुप्ति अरु बोध बखानौ। अमरष अवहित्थ उग्रता जानौ॥
मति अरु ब्याधि कहत उनमादै। मरनु जु त्रास वितर्क अवादै॥67॥

निर्वेद लक्षण (दोहा)

जो लक्षन निरवेद को, थिति में कह्यो बखानि।
विरकतत्व वह ही यहाँ, जानो सब बुधिमानि॥68॥

सोक दुःख सत्संग पुनि, कथा आदि तें होय।
निज निंदन समदृष्टता, ये अनुभाव सुजोय॥69॥

प्रश्न (पूर्वपक्ष)

थिति में औ’ संचारि में, दुहूँ ठाँव निरवेद।
लक्षहु एकै ही लिख्यो, समुझि परै किमि भेद॥70॥

उत्तर (उत्तरपक्ष)

जिहि रस को जो थिति कह्यो, तिहि रस में थिति जानि।
वही भाव पर-रस-विषै, संचारी पहिचानि॥71॥
याही बिाि तें ग्लानि अरु, क्रोध दोय हैं और।
तिनहूँ कों यों ही लिखें, सुकवि-बृंद सब ठौर॥72॥

यथा (कवित्त)

पारावार खाई, ताम्रकोट ओट स्वर्णगढ़,
बीस भुज जामें भर्यो हुतौ बल-गीत है।
ऐसो दससीस ताहि बाल वय द्वै भुज सों,
मारि डार्यो राम औ’ न राख्यो ताको सोत है।
‘ग्वाल’ कवि कोऊ यह डौल लखि चक्रित भौ,
बोल्यो अब जानौ मर्म सो करों उदोत है।
तन-बल धन-बल दल-बल झूँठो सब,
साँचो बल वाको जाकौ कियो सब होत है॥73॥

ग्लानि लक्षण: प्राचीन एवं नवीन (दोहा)

निस्सहता जहँ होत है, औ’ निरबलता होय।
ताहि गिलानि बखानहीँ, ‘रसतरंगिनी’ जोय॥74॥
त्रिषा छुधा औ’ सुरति-श्रम, आदि अलंबन गाउ।
सिथिल नैन बिबरन भ्रमन, आदि जु हैं अनुभाउ॥75॥
संचारी सु गिलानि को, यह लक्षन प्राचीन।
लक्षन लिखत नवीन अब, लखिहैं बुद्धि महीन॥76॥
सिकुरि जाय मन सुनि लख्त, कहिये ताहि गिलानि।
उपजत कुत्सित वस्तु तें, कुकरमादि तें मानि॥77॥
सिकुरन दृग औ’ नासिका, तिहिँ मूँदन हू गाउ।
रसना जलपतनादि हू, कहियत है अनुभाउ॥78॥

यथा क्रमशः प्राचीन एवं नवीन (कवित्त)

चंपकलता सी लहलही हौं लखी ही काल्हि,
आज वह दुलही मैं मुरकी निहारी है।
रारि हू तें सौ गुनी सी रति करि दली दैया,
ऐसो निदैयापन कीन्हों तुम भारी है।
‘ग्वाल’ कवि पंडित ने उलटी पढ़ी ही पोथी,
जाने रख दियो नाम रसिकबिहारी है।
बैठी एकै थल पै, न उथलि सकै है चीर,
ऐसी करी सिथिल तिहारी बलिहारी है॥79॥
कोऊ एक भूपति को बैरी रनखेत पर्यो,
रेत में परी हैं चीजें, ताके मृदु गात की।
देखत ही ताकों अट्टहास अति कीन्हों इन,
भृत्यन की इंगित हू भई हुलसात की।
‘ग्वाल’ कवि कहै ताके घावन पै बह्यो स्रोन,
चरबी पै माखी भिनकारन महात की।
मुसिकाय नाक मूँद जिभ्या जलपात करि,
बात करै बीरन सों जाके प्रान घात4 की॥80॥

शंका लक्षण (दोहा)

जहँ अनिष्ट के होन को, डौल सु परै लखाय।
तिहिँ तें डर सोचे जहाँ, सो संका बरनाय॥81॥
आलंबन अपगुन अपन, सत्रु क्रूरता आदि।
कंप चपल चख छपन सब, हैं अनुभाव अवादि॥82॥

यथा (दोहा)

जहँ अनिष्ट के होन को, डौल सुपरै लखाय।
तिहिँ तें डर सोचे जहाँ, सो संका बरनाय॥81॥
आलंबन अपगुन अपन, सत्रु क्रूरता आदि।
कंप चपल चख छपन सब, हैं अनुभाव अवादि॥82॥


यथा (सवैया)

कैसे कलंक बचै दई फाग में, डोलि है ग्वारिया भूरि बने।
मारिहैं फेंकि गुलाब की डारन, रेखें सरीर में पूर बनै।
यों कवि ‘ग्वाल’ भिजोय है रंग, भजाभज जात न दूर बनै।
न्हाये बनै, जल लाये बनै, जमुना पर जाये जरूर बनै॥83॥

असूया लक्षण (दोहा)

सहि न सकै उत्कर्ष पर, कै पर अहितै चित्त।
यहै असूया जानिये, बरनत हैं साहित्त॥84॥
दुर्जनत्व अरु गर्व पुनि, आलंबन पहचान।
रिस इंगित औ’ निंदिबो, ये अनुभाव बखान॥85॥

यथा (सवैया)

फूल इकै हरिचंदन को, रुकिमी-भगिनी को दियो है कन्हाई।
क्यों न बनै बद प्यारी बड़ी, जिन बाँभन भेजि लियो है बुलाई।
यों कवि ‘ग्वाल’ भजी जन लाख में, मातपिता हू की लाज न छाई।
पीहर में कहवाई खराब औ’, भाई को सीस मुँडाई कै आई॥86॥

मद लक्षण (दोहा)

मदिरादिक हैं द्रव्य जे, तिनको ग्रहण बखान।
अमल करन तें होय जो, मस्त सु मद पहचान॥87॥
डगमग पग, बहके बचन, बहु बोलै झुकि झूमि।
दृग झपकनि स्खलनादि दै, ये अनुभाव मलूम॥88॥


यथा (सवैया)

पीतम पास पलंग पै राजत, प्यारी पगी बतिया रसकीन में।
आसव आछो अँगूरी इँच्यों, अचवै अचवावै सदा सुथरीन में।
त्यों करि ‘ग्वाल’ करै नुकलै, न कलैनइ लावत है लहरीन में।
झूमै, झुकै, झिझकै, झहरै, झुमका झमकै, झपकै झपकीन में॥89॥

कवित्त

मंजुल मुकुरमनि महल सहल तामें,
मखमल फरस बढ़ावै मोद हीया कों।
रोसन मृदंगी रंग-रंग करि रंगी चंगी,
अंगी अलि अवली सँवार्यो करै दीया कों।
‘ग्वाल’ कवि आसव अंगूरी कई ताव भरे,
आब भरे प्याले आले प्यारे लगैं जीया कों।
प्यारी कहै प्यारे पियौ, प्यारो कहै प्यारी पियौ,
पियौ पियौ कहत प्रिया ही दियो पीया कों॥90॥
साजत पलंग पै उमंग भरी अंग-अंग,
रंग-रंग बसन सँवारि पैन्हैं सुच पै।
मोतिन के छरे परे कानन में सानदार,
हीरन के हार बैना बंदनी सरुच पै।
‘ग्वाल’ कवि कहै तहाँ राजत रसिकलाल,
ख्याल में बिसाल मन आयो अति उच पै।
नैन लगे प्यारी ओ, ओठ लगे प्याले कोर,
जीय लग्यो रति जोर, कर लग्यो कुच पै॥91॥

श्रम लक्षण (दोहा)

बोझ गमन रति करन तें, औरहु कारज आदि।
तिन तें होय जो सिथिलता, सो श्रम है सु अवादि॥92॥
स्वेद प्रगट है आइबो, निरबलतादि गनाउ।
बुधजन गन सब कहत हैं, श्रम के ये अनुभाउ॥93॥

यथा (कवित्त)

मैंने तो कही ही वह अति सुकुमारि नारि,
हार-हार जात, हार फूलन के धारे हैं।
तुम्हें जक लागी लाल इहाँ ही बुलाइवे की,
यातें जाय कहे प्रेम-बचन तिहारे हैं।
‘ग्वाल’ कवि नैकै चलि बैठि गई सी करिकै,
सीकर समूह वाके बदन पसारे हैं।
तारन के बृंद कों करत हुतो कुंद चंद,
आज चढ़ि चंद पर चमकत तारे हैं॥94॥

आलस्य लक्षण (दोहा)

श्रम भय गरभ सु जागरन, आलस करन उदोत।
उठन चलन आदिकन कों, मन असमर्थित होत॥95॥
कायरत्व की प्रकटता, है अनुभाव सुजान।
साहित ग्रंथन के विषै, लिखत सबै गुनमान॥96॥

यथा (कवित्त)

आई हुरियारिन लुगाइन की गोलै इहाँ,
पाइन परी में तऊ फैलि परी छल में।
बोरि दई रंग में गुलाल में झकोरि दई,
गहि झकझोरि दई खेल की उछल में।
‘ग्वाल’ कवि जब तें चहत मन मेरो यही,
बैठी रहों ह्याँई नहिँ करौ हलचल में।
यातें कौन जाय केलिमंदिर में आली अब,
प्यारे कों बुलाय लाउ मेरे ही महल में॥97॥
झपकि-झपकि खुलें खंजनी खुबीले नैन,
अधर अजूब जो पिया ने स्वाद चाखे हैं।
पूछती बरोबरि की अलियाँ बिहँसि करि,
प्यारी कहो बैन जे सुधा से अति भाखे हैं।
‘ग्वाल’ कवि उरज उठौंहे सोहै मोहें मन,
तापै काम कछू केस कुंडलित नाखै हैं।
मानो निसिनाथ जानि निसि के असुभचिंती,
डारि नागफाँस चकवान बाँधि राखे हैं॥98॥

दैन्य लक्षण (दोहा)

क्षुधा त्रिषा गद भय विरह, दारिदादि तें होत।
दुा की जो उत्कर्षता, भाव सु दैन्य उदोत॥99॥
खेदजनित बोलै बचन, भरे नम्रता भूर।
सहनसील बिबरन बहुरि, हैं अनुभाव सुपूर॥100॥

यथा (सवैया)

प्रान पियारी तिहारे के हाल, लिखों जिन चालन सों रहती हैं।
कीन्हें मलीन रहैं मन कौं, तन छीन छिनों छिन ही लहती हैं।
यों कवि ‘ग्वाल’ करीबी गहें, बितवै दिन-रात हिये दहती हैं।
सौतिन के विष बोरे कुबोल, अलोल भई सी सबै सहती हैं॥101॥

चिन्ता लक्षण (दोहा)

सत्रु प्रबल दारिद्र गह, प्रिय वियोग तें होय।
दुखमिश्रित जो ध्यान है, सो चिन्ता कवि लोय॥102॥
बिबरन आँसू स्वास गुरु, ये चेष्टा लखि लेउ।
द्रिष्ट सोच भय तें करौ, अनुभव चिंता भेउ॥103॥

यथा (कवित्त)

भूप बलवारे छलवारे कलवारे किते,
धनुष उठाय हारे बैठे बदरंग होय।
दसरथनंद पानि मृदु अरविंद हू तें,
बालगति मंद की बुलंद कौन अंग होय।
‘ग्वाल’ कवि कैसे सो चढ़ाय कै दिखाय दैहें
मोद सो बढ़ाय छाय दैहें जो उमंग होय।
ऐसो कोऊ ढंग होय, प्रनहू न भंग होय,
सीताराम संग होय, तो हियो अभंग होय॥104॥

मोह लक्षण (दोहा)

भय तें अरु अति प्रीय तें, उपजन करों बखान।
चित्त चिचित्त जु होयबो, ताको मोह पिछान॥105॥
भूलन घूमन भ्रूपतन, टकी लगैबो फेर।
इत्यादिक अनुभाव हैं, सुकवि लीजियो हेर॥106॥

यथा (सवैया)

होय रही बड़ी राधिका-राधिका, जानि परैगी निहार गई वह।
बोलै कभूँ, कभूँ बोलै नहीं, इमि मोहन की मति मार गई वह।
होस ह्वै आवै कभूँ कवि ‘ग्वाल’ तो, लावै टकी जित नारि गई वह।
पार गई परलै सी अरी, अली जानै का मोहनी डार गई वह॥107॥

घृति लक्षण (दोहा)

भुजबल बुधिबल ज्ञान तें, उतपति है बुधि-धीर।
दुखहु अदुख सम समुझाई, या संतोष सुधीर॥108॥
बिन हित सी कीयो करै, कीर्ति सदा सहजाय।
इत्यादिक अनुभाव हैं, जानत सरल सुभाय॥109॥

यथा (कवित्त)

मेलै करौ वासों नैन, सैन-सर झेलै करौ,
केलै करौ रात-दिन, खेलै करौ खहिकैं।
जाहै जब ऐबै करौ, दरसन दैबै करौ,
भोजन ह्याँ पैबो करौ, निज रुचि चहिकैं।
‘ग्वाल’ कवि मोहि निज खुसी ही की जान्यो करौं,
जुदी जिन जान्यो करौ, कहौं पाँव गहिकैं।
छिपकै न जैबो करौ, बसन सजैबो करौ,
पानि पान लैबो करौ, जैबै करौ कहिकैं॥110॥

स्मृति लक्षण (दोहा)

लख्यौ-सुन्यौ अरु जो कह्यो, तातें उपजति जोइ।
मित्र सत्रु निज कृति बिना, सुधि तें सुमृति सु होइ॥111॥
जाकी सब सुधि आवई, ताही के अनुकूल।
जो चेष्टा प्रगटै तबै, सो अनुभाव प्रफूल॥112॥

यथा (कवित्त)

नील कंज फूले लखि, आनन के ध्यान बँधे,
पून्यों के मयंक तें मुकुट दरसाय जात।
गुंजन तें गुंज माल, बनन तें बनमाल,
मोरपंख पुंजन तें ख्याल सरसाय जात।
‘ग्वाल’ कवि ग्वालन की गौअन की गोलन तें,
बंसिन तें घटिन तें छबि वही छाय जात।
मठा तें, मथानी तें, मथन तें सु माखन तें,
मोहन की मेरे मन सुधि आय-आय जात॥113॥

ब्रीडा लक्षण (दोहा)

दुराचार आदिकन तें, उपजत ब्रीडा भाव।
जो स्वच्छंद क्रियान कों, है संकोच प्रभाव॥114॥
नम्रित करिबो सीस-दृग, औ’ मूँदन मुख-नैन।
इत्यादिक ये लाज के, हैं अनुभाव सु ऐन॥115॥

यथा (कवित्त)

याही की अनोखी भई काल्हि है सुहागरात,
प्रात लाई सखियाँ मसू कै भजई ही जात।
सीस निहुराये देत, नैनन नवाये देत,
अंगन छिपाये देत, चीर खिंचई ही जात।
‘ग्वाल’ कवि बूँटी लाजवन्ती आँगुरी के छुए,
संकुचित हैकै फेर ज्यों की त्यों छई ही जात।
याकी रीति नई मैं निहारी री निहारिबे में,
सिकुरी-सिकुरी गोरी, गेंद सी भई ही जात॥116॥

चपलता लक्षण (दोहा)

मतसरता सिसुता जु भय, प्रीतादिक में जन्य।
सीघ्र-सीघ्र कारज करन, वही चपलता गन्य॥117॥
कहियत है सीघ्रत्व की, इंगितादि अनुभाव।
परुष वचादिक हू लिखें, पै अनबन दरसाव॥118॥

यथा (कवित्त)

आज वा वियोगिनी की बाँह बाम फरकत,
तापै काक बोल्यो, उड्यो कैयक घरीन में।
तब ही तें तरुनी को ताक्यो मैं तमासो यह,
चढ़त अटारी, कभूँ डोलै तिदरीन में।
‘ग्वाल’ कवि कबहूँ झँकत झझरीन में हूँ,
कबहूँ झँकैहै री किवार की झिरीन में।
ऐसी तौ न तोफगी तकी ही सफरीन में न,
खंजनी उरीन में, न कहूँ बिजुरीन में॥119॥
मन दै सुन्यो री कान्ह निचलौ रहै न अब,
सब तुम संग रहौ, याही के सम्हारे पै।
चढत्रत अटारी कभूँ, खोलै खिरकीन दैया,
कबहूँ उतरि चढ़ै, कंधन हमारे पै।
‘ग्वाल’ कवि कहै वहै मंदिर में वामैं कभूँ
आँगन में जाय, कभूँ पौरि रखवारे पै।
छिन में दुआरे जात, छिन में गल्यारे जात,
छिन ही मैं छौना किलकात पिछवारे पै॥120॥

हर्ष लक्षण (दोहा)

लखन-सुनन प्रिय सुत-जनम, ब्याहादिक में होय।
बांछित प्रापति में जु कछु, उपजै हर्ष जु जोय॥121॥
स्वेद और रोमांच कहि, पुनि हरषाश्रु बखान।
स्वरभंगादिक जानिये, बहु अनुभाव प्रमान॥122॥

यथा (कवित्त)

सखी ने सुनाई सुनौ सुनी सो सुनाऊँ बात,
प्रात स्याम आवेंगे परोसी आय भाखी है।
चार घरी दिवस चढ़े पै को मुहूरत है,
साँची नहिँ मानो तो सहेली यहू साखी है।
‘ग्वाल’ कवि ऐसे सुनि गोरी को उमंग बढ़ी,
बदन सुरंग अंग छाई छबि लाखी है।
मानो काम रँगरेज काटि कै कसूंभ गादि,
फटिक की सीसी गोल एक भरि राखी है॥123॥


आवेग लक्षण (दोहा)

लहि उत्पात’रु सत्रु प्रिय, दर्सनादि तें होत।
अथवा श्रम करिहूं कहू, करि आवेग उदोत॥124॥
किहूँ हेतु दोरन क्रिया, सो आवेग प्रभाउ।
विपर्यास त्वरिता तनहिँ, स्खलन आदि अनुभाव॥125॥

यथा (कवित्त)

सरद की पूनों मुख दूनो दमकत्त जाकौ,
ऊनौ भयो रूपहू को रूप उहि काल पै।
चाँदनी में चाँदनी महल पै ते बंसीधर,
बंसी में बुलाई आउ प्यारी जोति जाल पै।
‘ग्वाल’ कवि चाँदनी-सी सुंदरी सुजान वह,
सुनत प्रभान उठी अधिक उताल पै।
धौरी गच पाँयन तें रंग सोचु ओरी परै,
ऐसी दौरी गई री गिलौरी लै गुपाल पै॥126॥
त्रिभुवन को सिरमौर जो, सो गोकुल की खोर।
बछरन-बछरन के पछै, दौरत हैं चहुँओर॥127॥

जड़ता लक्षण (दोहा)

प्रिय अप्रिय की प्राप्ति तें, उपजत है यह आय।
मन-निरोध को होयबो, जड़ता सो कहलाय॥128॥
मौन‘रु अनमिख दृग कहैं, होत जु प्रलय मलाउ।
यातें असमुझ-सी सबै, इंगित कहि अनुभाउ॥129॥

यथा (सवैया)

या बिरहा पै परौ बजरा किन, बोलत बोल महा भभरे हैं।
खानन पान को स्वाद कहै, दृग मूँदे कछू औ’ कछू उघरे हैं।
त्यों कवि ‘ग्वाल’ तियान को जूथ, सबै उपहासन में पसरे हैं।
बूझै न बात कछू कहौं तोहि री, कामिनि पै पथरा-से परे हैं॥130॥

गर्व लक्षण (दोहा)

विद्या धन सौन्दर्य बल, अरु कुलीनता पर्व।
पुनि ऐश्वर्यादिक सबै, उपजावतु हैं गर्व॥131॥
आपुन कों किंहिँ हेतु तें, सब तें गिनै सवाय।
साहित ग्रंथन के मते, गर्व वही कहलाय॥132॥
निज प्रताप को भासिबो, करै न किहू पसंद।
भ्रू दृग चल हसनादि अरु, ये अनुभाउ अमंद॥133॥

यथा (कवित्त)

गोरे गात वारी ग्वारी, गोकुल गली में जो कि,
गोरी करि दीनी परी छाया सों अनंद नै।
देखि गति मेरी हंस फेरी करै चारों ओर,
दौर करि सीखी काहू बिरले गयंद नै।
‘ग्वाल’ कवि कोयल हू तप करि कारी भई
तौहू स्वर फीको कियो मेरे स्वर कंद नै।
ताब महताब को न चारु चाँदनी की फाब,
दाब लीन्हीं आब सब मेरे मुखचंद नै॥134॥

विषाद लक्षण (दोहा)

अनचाहे की प्राप्ति तें, उपजत है अविवाद।
दुखी होंय, सोचें जतन, सुखद दुखद सुविषाद॥135॥
उत्तम मध्यम अधम नर, तीन भाँति के होत।
जुदे-जुदे अनुभाव सब, इनके करत उदोत॥136॥
चहै उपाय सहायता, चिंतादिक बर लोय।
बिमन होय सो जानिये, यह मध्यम है कोय॥137॥
नींद स्वाँस मुख सुस्कता, दौरन औ’ कहि ध्यान।
इत्यादिक अधमन बिषै, बरनत हैं गुनमान॥138॥

यथा (कवित्त)

आज की अवधि पिय आवन की बीत चली
गली में लगी है तकी द्वार रखवारे की।
साँझ होय आई पै न आई असवारी अभी,
जारी बहुवारी मैं बिरह बजमारे की।
‘ग्वाल’ कवि अब तौ उपाय ना दिखातौ कछू,
घाती अति भई रात पाख उजियारे की।
कब भेजों, कहाँ भेजों, काहि भेजों, कहा कहों,
कौन लावै, कब आवै, खबरि पियारे की॥139॥

औत्सुक्य लक्षण (दोहा)

प्रिय आगम रति समै लहि, उपजत है यह भाव।
सहि न सकै चित ढील कों, औत्सुक्य बरनाव॥140॥
सीघ्रपनो उत्कंठ पुनि, मिश्रित दोऊ होय।
जो चेष्टा आवै उपजि, सो अनुभाव सुजोय॥141॥

यथा (कवित्त)

तीसरे पहर ही तें पति मिलिबे के काज,
साजत सिँगार कुसुमारी अति सुंदरी।
अंग-अंग काम की उमंग उफनात आवैं,
हिय तें तरंग रंग-रंग परै ऊभरी।
‘ग्वाल’ कवि दिवस उतैक सौ पहार भयो,
बार-बार तकि केलिमंदिर की तिदरी।
घरी-घरी घरी गिनै, खोलै घरी-घरी घरी,
घरी-घरी भाषै रही साँझ में इती घरी॥142॥

निद्रा लक्षण (दोहा)

आलस स्रम जाग्रादि तें, उपजत निद्रा आय।
छाँडि और इंद्रीन कों, प्राण त्वचा में जाय॥143॥
दृग भू्र चलन करौट पुनि, बरराहट फिर जान।
स्वप्नादिक अनुभाव ये, निद्रा के पहचान॥144॥

यथा (कवित्त)

सोई दोपहर की समोई अति आलस की,
पावस की ब्यारि भोई स्वेदन रहा-रहा।
जानी अब परत पिया नेसपने में गही,
चलै तो तकाऊ मैं तमासा जो लहा-लहा।
‘ग्वाल’ कवि भौंहैं सतरौंहैं होय-होय आवैं,
मोहै लत मन को सुनाऊँ मैं कहा-कहा।
नीबी गहगही, गहि रही, कहि रही यही,
रहौ-रहौ, नहीं-नहीं उहूँ हूँ हहा-हहा॥145॥

अपस्मार लक्षण (दोहा)

उग्र दुःख भय सून्य गृह, अपवित्रता बखान।
धातु विषमता होन तें, यह उपजत पहचान॥146॥
होय ग्रहादिक को जहाँ, देह माँहि आवेस।
अपस्मार ताकों कहैं, पंडित सुकवि सुदेस॥147॥
कंप स्वाँस गुर फेन मुख, गिरपरनो पुनि जान।
जीभ चलन आदिक कहत, ये अनुभाव प्रमान॥148॥

यथा (कवित्त)

बिछुरी पिया तें सो छुरी-सी बबरी-सी हिये,
भभरी-सी येरी विरहागन में बरी-सी।
रेत की घरी-सी, तर ऊपर करी सी बिथा,
बिखरी-सी अलक कपोलन पै डरी-सी।
‘ग्वाल’ कवि आँखें सफरी-सी पथरी-सी भई,
स्वाँसें उखरी-सी लेत तन थहरी-सी।
मैन की बरी-सी यैन मैन सुपरी-सी अरी,
बेसुध परी-सी फेन बूँद मुख भरी-सी॥149॥

सुषुप्ति लक्षण (दोहा)

निद्रा तें त्वच त्यागि मन, पुर के अंतर जात।
ताहि सुसोपति जानिये, भरत मते बरनात॥150॥
मूँदन है लोचनन कों, फिर कहि ऊचे स्वाँस।
प्रलयादिक अनुभाव ये, सुकवि जु करत प्रकास॥151॥

यथा (कवित्त)

कीजिये कलोल तौन लोल हूजै लाल हाल,
होलै चलि छीजिये कपोल गोल गोरे-से।
न्हाई आज सौंधे सों, सुखावन न पाई सीस,
सेज बिछवाय अलसाय परी जोरे-से।
‘ग्वाल’ कवि बिमल बिछात पै बिसुध सोई,
बिथुरे सु बार बलदार चित चोरे-से।
मानो ससि कैरव के दलन बिछाय सोयो,
ताके चारु चौर परे मृगमद बोरे-से॥152॥

बोध लक्षण (दोहा)

निद्रा को जो छूटिबो, तासों यह उपजाय।
इंद्रिन को जो प्रथम ही, चेतनत्व बोधाय॥153॥
चख मलिबो, जमुहाइबो, कटकैबो अंगुरीन।
अँगिरैबो इत्यादि कहि, हैं अनुभाव प्रबीन॥154॥

यथा (कवित्त)

सोई अधरात की प्रभात की पवन लागि,
जागी मृदु गात की सुरूप ही झमंक्यो है।
उठि अंगरानी आँखि मलि मुसिकानी स्यानी,
सखी सों लजानी, हास सुनि कछु बंक्यो है।
‘ग्वाल’ कवि दाहिनी तरफ तकिया सो लागि,
करि जु कपोल धर्यो वाको भाव अंक्यो है।
मानो बैर मानि अरविंद के दबाइबे कों,
करि मसलंद चंद चौगुनो चमंक्यो है॥155॥

यथा (सवैया)

अपसोस मैं कैसे रहैं अब सोय, कहा भयो मैं अब ह्वै कै गई।
चित चंचल चंदमुखी चर बांक, चुभीली चितौन चितैकै गई।
कवि ‘ग्वाल’ लई गहि क्यों न तबै, कै लई गहि अंक मिलैकै गई।
ढिंग आई नहीं सुख लैकै गई, सपने में हमै दुख दैकै गई॥156॥

अमर्ष लक्षण (दोहा)

उपज अवज्ञा तें कहैं, अरु अपमान सु आदि।
उत्कट इच्छा होय जहँ, करन सु पर मद वादि॥157॥
सिर कंपन दृग अरुनई, स्वेदादिक बरनाव।
कहि अमर्ष की उपज अरु, लक्षन फिर अनुभाव॥158॥

यथा (कवित्त)

पीतम तें खिल-खिल खेलत ही सतरंज,
कंज मुख अधर अनूप रूप राते से।
जोर पर जोर मुहरेन की चलाचली में,
चाहत छलाछली छबीले कछ गाते से।
‘ग्वाल’ कवि प्यारे निज चालि फेरिबै पै जिदे,
प्यारी के भये हैं रतनारे नैन राते से।
मानो लाल मखतूल जाल की फँसाने फँसे,
खंजन क्या खूब द्वै देखे फरफराते से॥159॥

अवहित्था लक्षण (दोहा)

गौरवता औ’ कुटिलता, बहुरि धृष्टता लाज।
इत्यादिक तें होत है, अवहित्था कविराज॥160॥
आदत जो व्यवहार की, सो छिपवै किंहुँ रीत।
करन और औरें कहत, करि अनुभाव प्रतीत॥161॥

यथा (कवित्त)

छूटि आवै गैया के बिलैया चाट-चाट जात,
कौन दुख दैय्या दैय्या सोच उर धार्यो मैं।
हौंही जमवैया औ’ धरैया निज सैया तरै,
करौं जो कन्हैया हास होयगो विचार्यो मैं।
‘ग्वाल’ कवि होलैं को अवैया नरदैया यही,
आज या समैया और पैया गहि पार्यो मैं।
मैया को बुलाऊँ जो कन्हैया को करै कुहाल,
दधि को चुरैया याहि पकरि पछार्यो मैं॥162॥

उग्रता लक्षण (दोहा)

दुरजनता अपराध अरु, दोषकथन पुनि जान।
सठकर आदिक तें लिखत, होत उग्रता आन॥163॥
निरदयपन कों उग्रता, भाषत हैं कवि लोय।
ताड़न-तर्जन आदि दै, हैं अनुभाव सुजोय॥164॥

यथा (कवित्त)

पीतम तें खिल-खिल खेलत ही सतरंज,
कंज मुख अधर अनूप रूप राते से।
जोर पर जोर मुहरेन की चलाचली में,
चाहत छलाछली छबीले कछ गाते से।
‘ग्वाल’ कवि प्यारे निज चालि फेरिबै पै जिदे,
प्यारी के भये हैं रतनारे नैन राते से।
मानो लाल मखतूल जाल की फँसाने फँसे,
खंजन क्या खूब द्वै देखे फरफराते से॥159॥

अवहित्था लक्षण (दोहा)

गौरवता औ’ कुटिलता, बहुरि धृष्टता लाज।
इत्यादिक तें होत है, अवहित्था कविराज॥160॥
आदत जो व्यवहार की, सो छिपवै किंहुँ रीत।
करन जो औरें कहत, करि अनुभाव प्रतीत॥161॥

यथा (कवित्त)

छूटि आवै गैया के बिलैया चाट-चाट जात,
कौन दुख दैय्या दैय्या ससोच उर धार्यो मैं।
हौं ही जमवैया औ’ धरैया निज सैया तरै,
करौं जो कन्हैया हास होयगो विचार्यो मैं।
‘ग्वाल’ कवि होलैं को अवैया नरदैया यही,
आज या समैया और पैया गहि पार्यो मैं।
मैया को बुलाऊँ जो कन्हैया को करै कुहाल,
दधि को चुरैया याहि पकरि पछार्यो मैं॥162॥

उग्रता लक्षण (दोहा)

दुरजनता अपराध अरु, दोषकथन पुनि जान।
सठकर आदिक तें लिखत, होत उग्रता आन॥163॥
निरदयपन कों उग्रता, भाषत हैं कवि लोय।
ताड़न-तर्जन आदि दै, हैं अनुभाव सुजोय॥164॥

यथा (कवित्त)

कहा भयो जो पै भोर भावतो कहूँ तें आयो,
ह्वै गयो रुकाव कहूँ बस काहू ख्याल के।
ऐसो कहा गरब कर्यो है गुन-रूप को तैं,
बोलि बोलै बचन तरेरे साफ साल के।
‘ग्वाल’ कवि निहचै करी तें कहि कौन भाँति,
जातैं दोष लायो, बिन बूझें इहि बाल के।
गजरे गुलाब के न मारि निरदैयिनी तू,
गढ़ि जैहैं पाँखुरी ये गात में गुपाल के॥165॥

मति लक्षण (दोहा)

सास्त्र बिचारन आदि तें, उपजन याकी जान।
होय जथारथ ज्ञान जो, सो मति है गुन खान॥166॥
सिक्षै सिष्यन भ्रू चढ़न, कर चालन चातुर्य।
इत्यादिक अनुभाव कहि, जिनकी गिरा मधुर्य॥167॥


यथा (कवित्त)

तू तौ कहै रूँसि, पिय राति रमि आयो कहूँ,
गुरु उपदेस मैं तौ धार्यो वेद व्रति को।
कोऊ क्यों न बाल होय, फस्यो जासों लाल होय,
ताहि मैं बुलाऊँ औ’ बनाऊँ ख्याल रति को।
‘ग्वाल’ कवि मेरे यही प्रन है सघन घन,
प्यारे की खुसी में खुसी होत मन अति को।
पति ही तें पति और संपति सुगति रूप,
पति ही सों रघुपति, बाधक विपति को॥168॥

व्याधि लक्षण (दोहा)

धातु कोप दुख काम भय, इत्यादिक सों होत।
ज्वर आदिक जु विकार कों, कहियत व्याधि उदोत॥169॥
अनुभावन में जानिये, दसों उपद्रव जान।
सुनो नाम जैसे किये, वैदन ने अनुमान॥170॥
स्वास कास मूर्छा अरुचि, छर्द त्रिषा अतिसर।
मलस्तंभ हिक्वा बहुरि, पुनि बिभेद सुबिचार॥171॥

यथा (सवैया)

भमराइ गई बिरहागिन में, मति की गति हू कतराय गई-सी।
नियराई गई पिय आवन औधि, तऊ तरुनी अधिराय गई-सी।
सियराय गई न बिथा तन की, कवि ‘ग्वाल’ कहैं घबराय गई-सी।
दुबराय गई, पियराय गई, पलिका पै परी ही हिराय गई-सी॥172॥

उन्माद लक्षण (दोहा)

वैभव के विध्वंस तें, प्रिय वियोग तें होय।
बिन बिचार आचार जो, कहि उन्माद सु जोय॥173॥
हँसन रुदन बोलन वृथा, इत्यादिक अनुभाव।
ग्रंथन में सब करत हैं, इह बिधि तें बरनाव॥174॥

यथा (सवैया)

रोवन लागै तिया बिरहागि में, हाँस कै ऊपर जोवन लागै।
बोवन लागै पलंग पै पानन, छाछ में छाछ समोवन लागै।
सोवन लागै न सोवै कभूँ, कवि ‘ग्वाल’ सखीन बिगोवन लागै।
धोवन लागै सुछीर तें आनन, लै रई नीर बिलोवन लागै॥175॥

मरण लक्षण (दोहा)

भंग प्रतिष्ठा होन तें, भय गद दारिद जान।
और अनिष्टादिकन तें, उपजत है पहचान॥176॥
मरिबे को जु विकार जहँ, मन में उपजै आय।
संचारी सो मरन है, इमि बरनै कविराय॥177॥
तन करि त्यागन जगत को, ताकी जो है दिष्ट।
सो अनुभाव बखानिये, सुनो सुबुद्धि वसिष्ट॥178॥

यथा (कवित्त)

बीति गई औधि, मनमोहन के आयबे की,
तायबे की बान लई, पंचबान बान लै।
धीर गयो धाय, पीर पल-पल सरसाय,
कछु न सुहाय, गई मति हू सयान लै।
‘ग्वाल’ कवि सुनी मैं दुनी मेंदई दीनद्याल,
यातें करौं अरज, दयाकै मेरी मान लै।
मेघन की धारन तें, केकी किलकारन तें,
पपीहा पुकारन तें, पहले ये प्रान लै॥179॥

त्रास लक्षण (दोहा)

जातें डर आवै उपजि, सो आलंबन होत।
अकस्मात विक्षोभ मन, सो करि त्रास उदोत॥180॥
कंप पुलक स्वरभंग पुनि, स्तंभ स्वेद बरनाव।
अरु सरीर सिथिलादि ये, कहियत हैं अनुभाव॥181॥

यथा (सवैया)

चहुँ ओर मरोर सों मेह परै, घनघोर घनी घनी छाय गई-सी।
तरराय परी बिजुरी कितहुँ, दसहुँ दिसि मानहु ज्वाल बई-सी।
कवि ‘ग्वाल’ चमंक अचानक की, लख तें ललना मुरझाय गई-सी।
थहराय गई, हहराय गई, पुलकाय गई, पल न्हाय गई-सी॥182॥

काल्हि सुहाग की राति में तो, बची जीवन नीठ महादुख पाओ।
फेर वही दुखदायक दूलह, आज हू आवतु लैन है दाओ।
दौरि झुकी कवि ‘ग्वाल’ दिवाल पै, बाल जिठानी को बोल सुनाओ।
ये जिजी ये जिजी नैकु इतै, हहा ऊपर के बंगला तुम जाओ॥183॥

वितर्क लक्षण (दोहा)

उपजतु है संदेह तें, बरनत सुकवि सुजान।
बहु बिधि करै बिचार जो, सो वितर्क परमान॥184॥
भौंह चलावन जानिये, सीस डुलावन आदि।
बरनत हैं अनुभाव कों, ग्रंथन में सु अवादि॥185॥

यथा (कवित्त)

सुरत समै जो रसना तें तू कहत प्यारी,
बहत विनोद की नदी-सी चितचाही है।
काबुली अनार में, अंगूरन में, सेबन में,
मिसरी में, कंद में, न ताकी परछाँही है।
‘ग्वाल’ कवि ऊख तें, मयूख तें, पियूख हू तें
सब तें सरस स्वाद आखरन माँही है।
मैन की उछाही है, कि मोहन धुजा ही है, कि-
प्रेम गलबाँही है, कि तेरी यह नाँही है॥186॥
मदन महीप किधौं मुख अवलोकिबे कों,
मुकर सँवारि राखे मुकुर अमोल हैं।
कैधों बिधि, बिधि करि, पूरन ससी को चीर,
करिकै बरक राखे, अनूप अतोल हैं।
‘ग्वाल’ कवि कैधों पिय अधर बिराजिबे कों,
सुंदर चबूतरा उभय गति गोल हैं।
तूल के पहल हैं, कि मंजु मखमल है, कि-
माखन महल हैं, कि अमल कपोल हैं॥187॥

छल लक्षण (दोहा)

भानुदत्त जू ने लिखो, ‘रसतरंगिनी’ माँहि।
नूतन इक औरो बनत, छल संचारी चाहि॥188।
प्रतिपक्ष जु अवमान अरु, पुनि कुचेष्ट तें होय।
इष्ट सिद्धि की चाह भव, लछन खुलासा होय॥189॥
क्रिया गुप्त को करन जो, छल संचारी गाउ।
दुरबै निजता लखन पुनि, मुसिकन आद्यनुभाव॥190॥

यथा (कवित्त)

साँवरे सुजान, बनि गोपी बरसाने गये,
धँसे वृषभानु जू की पौरि झलाबोरी की।
दीन ह्वै, अधीन ह्वै, पगनि परे कीरति के,
बोले सुनी कीरति तिहारी चहुँ ओरी की।
‘ग्वाल’ कवि सौत के दुखन तें निकसि धाई,
सरन तिहारी आई, बान है न जोरी की।
सासन तिहारी सब, सीस पै धरौंगी रानी,
सेवा मैं करौंगी, तेरी कुँवरि किसोरी की॥191॥

॥इति श्री रसरंगे ग्वाल कवि विरचिते रसावयववर्णनं नाम प्रथमौ उमंगः॥