प्रथम छंद / प्रतिभा सक्सेना
वह प्रथम छंद,
बह चला उमड़ कर अनायास सब तोड़ बंध,
ऋषि के स्वर में वह लोक-जगत का आदि छंद!
जब तपोथली में जन-जीवन से उदासीन,
करुणाकुल वाणी अनायास हो उठी मुखर
क्रौंची की दारुण-व्यथा द्रवित आकुल कवि-मन
की संवेदना अनादि-स्वरों में गई बिखर .
अंतर में कैसी पीर, अशान्ति और विचलन
ऐसे ही विषम पलों में कोई सम्मोहन
स्वर भरता मुखरित कर जाता अंतर -विषाद
मूर्तित करुणा का निस्स्वर असह अरण्य रुदन,
तब देवावाहन - सूक्त स्तुतियाँ सब बिसार
कवि संबोधित कर उठा,' अरे, ओ, रे निषाद..'
स्वर प्राणि-मात्र की विकल वेदना के साक्षी
शास्त्रीय विधानों रीति-नीति से विगत-राग.
जैसे गिरि वर से अनायास फूटे निर्झर
उस आदि कथ्य से सिंचित हुआ जगत-कानन,
कंपन भर गया पवन में जल में हो अधीर,
तमसा के ओर-छोर, गिरि वन, तट के आश्रम!
खोया निजत्व उस विषम वेदना के पल में
तब प्राणिमात्र से जुड़े झनझना हृदय- तार
उस स्वर्णिम पल में, बंध तोड़ आवरण छोड़
ऊर्जित स्वर भर सरसी कविता की अमिय-धार!