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प्रथम भुराई चाह-नाय पै चढ़ाइ नीकै / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’

प्रथम भुराई चाह-नाय पै चढ़ाई नीकै
न्यारी करौ कान्ह कुल-कूल हितकारी तैं ।
प्रेम-रतनाकर की तरह तरंग पारि
पलटि पराने पुनि प्रन-पतवारी तैं ॥
और न प्रकार अब पार लहिबै कौ कछु
अटकि रही हैं एक आस गुनवारी तैं ।
सोऊ तुम आइ बात विषम चलाइ हाय
काटन चहत जोग कठिन कुठारी तैं ॥68॥