प्रथम संस्करण से / चांद का मुँह टेढ़ा है
मुक्तिबोध की लम्बी कविताओं का पैटर्न विस्तृत होता है। एक विशाल म्यूरल पेण्टिंग आधुनिक प्रयोगवादी,अत्याधुनिक जिसमें सब चीजें ठोस और स्थिर होती है,किसी बहुत ट्रैजिक सम्बन्ध के जाल में कसी हुई।... अगर किसी ने स्वयं मुक्तबोध की जबानी उनकी कोई रचना सुनी हो तो...कविता समाप्त होने पर ऐसा लगता है जैसे हम कोई आतंकित करनेवाली फिल्म देखने के बाद एकाएक होश में आये हों।.. चूँकि वह पेण्टर और मूर्तिकार हैं अपनी कविताओं में-और उनकी शैली बड़ी शक्तिशाली, कुछ यथार्थवादी मेक्सिकन भित्ति-चित्रों की सी है। वह एक-एक चित्र को मेहनत से तैयार करते हैं, और फिर उसके अम्बार लगाते चलते है। एक तारतम्य जैसे किसी ट्रैजिक नाट्य मंच पर एक उभरती भीड़ का दृश्य-पूर्वनियोजित प्रभाव के साथ खड़ी।... इनके प्रतीक गाथाओं के टुकड़ों में सन्दर्भ आधुनिक होता है। यह आधुनिक यथार्थ कथा का भयानकतम अंश होता है...मुक्तिबोध का वास्तविक मूल्यांकन अगली,यानी अब आगे की पीढ़ी निश्चय ही करेगी, क्योंकि उसकी करूण अनुभूतियों को, उसकी व्यर्थता और खोखलेपन को पूरी शक्ति के साथ मुक्तिबोध ने ही अभिव्यक्त किया है। इस पीढ़ी के लिए शायद यही अपना खास महान कवि हो।
प्रथम संस्करण से....
मुक्तिबोध अगर स्वस्थ होते तो पता नहीं अपनी कविताओं का संकलन किस प्रकार करते। शायद उन्होंने अपनी कविताएँ अधिक विवेक और परख के साथ चुनी होतीं क्योंकि इन तमाम आत्मपरक कविताओं के कवि मुक्तिबोध न केवल दूसरों के प्रति बल्कि ख़ुद अपने प्रति एक सही और तटस्थ दृष्टि रखते थे और, दूसरों से या अपनों से उन्हें जो भी मोह रहा हो। अपने से मोह उन्हें कभी नहीं रहा।
अपने प्रति यह निर्मोह उनकी इन कविताओं की रचना-प्रकिया में भी प्रकट है जिन्हें उन्होंने कई बार लिखा और एक ही कविता के कई प्रारूप हैं। इस संकलन में अन्तिम प्रारूपों को ही शामिल किया गया है, हालाँकि मुक्तिबोध ने इन्हें अन्तिम प्रारूप मान लिया होगा यह विश्वास कर सकना कठिन है।
अपने-आपसे, जैसे किसी पहाड़ से, बराबर जूझते रहनेवाले कवि ये लंबी कविताएँ ज़्यादातर पिछले दस साल की हैं। मुक्तिबोध का पहला संकलन उनकी पहली कविताओं का नहीं बल्कि अन्तिम (फ़िलहाल जब तक वह निरोग नहीं होते तब तक अन्तिम) कविताओं का संकलन हो—हमारे सामाजिक जीवन में कविता को क्या स्थान हासिल है, इसका इससे अच्छा परिचय और क्या मिल सकता है ! वास्तव में कविता मरणासन्न है या समाज, इसका फ़ैसला भी कवि और समाज दोनों ही अपने-अपने ढंग से करेंगे। मुक्तिबोध तो शायद यह नहीं मानते मगर मैं यह ज़रूर मानता हूँ कि अपनी मृत्यु के लिए कवि भले ही ज़िम्मेदार हो, समाज की मृत्यु के लिए क़तई नहीं।
किसी और कवि की कविताएँ उसका इतिहास न हों, मुक्तिबोध की कविताएँ अवश्य उनका इतिहास हैं। जो इन कविताओं को समझेंगे उन्हें मुक्तिबोध को किसी और रूप में समझने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। जिंदगी के एक-एक स्नायु के तनाव को एक बार जीवन में और दूसरी बार अपनी कविताओं में जीकर मुक्तिबोध ने अपनी समृति के लिए सैकड़ों कविताएँ छोड़ी हैं और ये कविताएँ ही उनका जीवनवृत्तान्त हैं।
बीमारी के दौरान मुक्तिबोध ने इच्छा ज़ाहिर की कि इस संकलन में उनकी दो कविताएँ-‘चम्बल की घाटियाँ’ और ‘आशंका के द्वीप अँधेरे में’—ज़रूर शामिल की जाएँ। दोनों एक के बाद दूसरी छापी जाएँ और दूसरी का शीर्षक बदल दिया जाए। उन्होंने कहा था कि ‘आशंका के द्वीप अँधेरे में’ शीर्षक एक विशेष मनःस्थिति के प्रवाह में मैंने दिया था। उनकी इच्छा के मुताबिक शीर्षक से मैंने ‘आशंका के द्वीप’ हटा दिया है, हालाँकि मुझे लगता है यह शीर्षक इस कविता के अर्थ को अधिक अच्छी तरह व्यंजित करता है। ये दोनों ही कविताएँ उनकी, बीमार पड़ने के कुछ समय पहले की कविताएँ हैं और इस दृष्टि से अब तक की कविताओं में ये उनकी अन्तिम कविताएँ हैं।
मुक्तिबोध को शायद यह भी भय था कि वे सब अपनी अधूरी कविताएँ पूरी नहीं कर पाएँगे अतः उन्होंने मुझसे कहा था उनकी कुछ अधूरी कविताएँ सम्पादित कर मैं इस संकलन में शामिल कर दूँ। मगर यह सोचकर कि मुक्तिबोध की रचना-प्रक्रिया समझने में उनकी ये अधूरी कविताएँ सहायक होंगी, मैंने उन्हें वैसा का वैसा एक अलग संकलन में छपने के लिए रख छोड़ा है।
मुक्तिबोध, जो अपनी कविताओं को अपनी जिन्दगी से अधिक सहेजते थे, इस समय अपना संग्रह देख सकने में असमर्थ हैं बेहोश हैं। लेकिन वे सब नवयुवक कवि जिन्हें मुक्तिबोध ने इस हद तक प्रेम किया है कि वे कभी मुक्तिबोध को भूल नहीं सकते, यह विश्वास करते हैं कि वे पूरी तरह निरोगी होंगे और अपनी कविताओं के पहले संकलन को देख सकने में समर्थ होंगे।
इस संकलन के प्रकाशन में अनेक नवयुवक साहित्यकारों की दिलचस्पी रही है और संकलन के लिए ‘कविताओं’ के चुनाव में मुख्य रूप से श्री अशोक बाजपेई की सहायता प्राप्त हुई है।
14 अगस्त,
श्रीकान्त वर्मा
नयी दिल्ली