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प्रदर्शनी / विमल राजस्थानी

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अमृत-वायु मृदु, खग-कुल-कलरव, झीनी-झीनी लाली
खिले गुलाब, जुही मुस्कुाई, झूम रही शेफाली
मंत्रोच्चार, शंख-घंटा-ध्वनि, स्तुतियाँ कूजी हैं
अगरु-धूम छा रहा, कृष्ण-राधा की जय गूँजी है
बौद्ध-विहारों में बुद्ध शरणम् के स्वर छाये हैं
मथुरा का मधु-प्रात निरखने देव उतर आये हैं
चारों ओर पुलक, हलचल, प्रमुदित, उल्लसित नगर है
मानों किसी महोत्सव की उमंग बिखरी घर-घर है
बहुत दिनों से घिरी उदासी आज टूटने को है
मथुरा का प्रति व्यक्ति कला-आनंद लूटने को है
मूर्तिकार कोंकण से नयी मूर्तियाँ लाया है
आज प्रदर्शन-तिथि, मथुरा में हर्ष उमड़ आया है
निबटा कर सब कार्य शीघ्रता से, प्रसन्न,सज-धज कर
प्रदर्शनी में जाने को आकुल-उत्सुक नारी-नर
दुखी, व्यथित, संतप्त हृदय कुछ तो सँभले-बहलेंगे
ऊदे-हरे घाव उर के फिर कला-करों सहलेंगे
मूर्तिकार! तुम धन्य, सांत्वना-सुख पहुँचाने वाले
इस निर्जीव नगर को अमृत पिला, जिलाने वाले
सुनी सुनयना ने प्रदर्शनी की जब बात,विचारा
वासव का मन बहलाने का निश्चय यही सहारा
इसी बहाने निकल महल से, कुछ तो घूम सकेगी
तृषित दृष्टि पूर-जन की वासव का मुख चूम सकेगी
उग पायेगी दुखी मनों में क्षीण रेख आशा की
थोड़ी भी तो पूर्ति हो सकेगी चिर अभिलाषा की
कर विचार, भागी-भागी अंतःपुर में वह आयी
देखा-वासव जगी हुई है, लेती है अँगड़ाई
खुले गवाक्षों से रवि-किरणें हौले झाँक रही है
तिरस्करणियों पर झिलमिल छवि-बूँटे-टाँक रही है
देख रही है वासव अपनी दोनों खुली हथेली
सुलझी-सुलझी आज लग रही है कुछ कठिन पहेली
पुलक सुनयना ने सस्मित वासव की ओर निहारा
मिले नयन से नयन, स्नेह की फूटी ज्योर्तिधारा
ऐसा लगा कि फिर से जैसे सुदिन लौट आये हैं
उछल नीड़ से, फुदक, विहंगिनि ने पर फैलाये हैं
लगता है-अनवरत रूदन से पीड़ा-भार घटा है
शुभ्र नील आकाश, बादलों का दल छँटा-छँटा है
रोम-रोम में नव उमंग भर-भर नयना मुस्काई
नत्न-जड़ित पर्यंक-निकट फिर मंथर गति से आयी
विहँस, कलाई थाम, आँख में आँख डाल, मुँहबोली,
सखि, सहचरी, दासी, अभिभाविका सुनयना बोली-
‘‘तुम्हें नहीं है ज्ञात नगर में क्या होने वाला है
चारों ओर हर्ष का देखो छिटका उजियाला है
कोंकण के प्रसिद्ध शिल्पी की चहुँदिशि धूम मची है
शिल्पकार ने ब्रह्मा से भी सुन्दर सृष्टि रची है
आज उसी की प्रदर्शनी है,क्या तुम नहीं चलोगी?
मन सारे बैठे-लेटे दीपक-सा सदा जलोगी?
दुख के दिन पहाड़ होते हैं, रातें शैल-शिला-सी
कोई भी तो क्षण ऐसा हो जोे हो मुदित, सुहासी
नम्र निवेदन है मेरा, कह दो तो सुरथ मँगाऊँ
बहल जाये यदि आहत मन थोड़ा मैं सुख पाऊँ’’
दिनों बाद वासव के अधरों पर स्मिति-सी छिटकी
 पुरवइया के झोंके से ज्यों लाज लजे घूंघट की
प्रथम बार कुम्हलाये मुख पर उगी हँसी की रेखा
 कातर नयनों से वासव ने दुखी सखी को देखा
बोली-’’मेरे लिये शेष क्या आकर्षण इस जग में
फिर भी तेरी इच्छा है तो चली चलूँगी सँग में
नहीं चाहती मैं-मेरे सँग-सँग तुम भी दुख झेलो
 मेरी व्यथा बटोर, भार मेरी पीड़ा का ले लो
करने को तुमको प्रसन्न में चलो, चली चलती हूँ
पर सच तो यह-ऐसा कर मैं अपने को छलती हूँ
इतना है कि नहीं मैं सखी ! कोई श्रंृगार करूँगी
नहीं वेणि में सुमन, दृगों में काजल नहीं भरूँगी
चीनांशुक श्रृंगार-कक्ष मंे रख दे, मैं आती हूँ
किन्तु,विवश हूँ, रह-रह कर मैं आँखें भर लाती हूँ
भाव-वेग को कठिन रोकना? रोके नहीं रूकेगा
 देख अश्रु शिल्पी बोलो, मन में क्या कुछ न कहेगा,
कैसे मैं सँभाल पाऊँगी,निज को, तुम्हीं कहो ना
तल छू रही पीर-अम्बुधि का,ओ सखी ! बाँह गहोना
क्या तुम अपनी वासव को बोलो, उबार पाओगी?
सच कहती-प्रयत्न करने के पूर्व डूब जाओगी’’
सुनती रही सुनयना, डबडब आँखे लगी बरसने
पांेछ अश्रु आँचल से वासव बरबस लगी विहँसने
’’आँसू मत छलका,वासव मन बहुत कड़ा कर लेगी
आँखों के आगे भिक्षुक का चित्र खड़ा कर लेगी
थम जायेंगे अश्रु, हृदय में पुलकन भर जायेगी
भ्रमण-काल तक मँझधारों से तरी उबर जायेगी
साक्षी है इतिहास,पुरुष ही नारी पर रीझा है
रस की अमिय फुहारों से नर ही पहले भींझा है
किन्तु, सुनयने ! मैनें तो इतिहास मोड़ डाला है
नारी पर नर ही रीझे, यह नियम तोड़ डाला है
 मेरे वश की बात नहीं थी, फिसल गया मन मेरा
हृदय-नीड़ ने प्रेम-विहग को झट दे दिया बसेरा
जो भी हो, दुख भूल, तूम्हारी बात मान लेती हूँ
पहली बार आज तूमसे सांत्वना-दान लेती हूँ’’