प्रदीप साठे के लिए / शैलेन्द्र चौहान
भूल चुका हूँ तुम्हारा पूरा नाम
आँखों के सामने है तुम्हारी लंबी यष्टि
और यह, कि आदत थी तुम्हारी
गुनगुने पानी से सदैव नहाने की
आज अचानक तुम्हारी याद!
जहाँ भी होओ, सुखी, प्रसन्न होओ
चौदह वर्षों का अंतराल
कोई कम तो नहीं
होने लगे थे क्लीयर
धीरे-धीरे इंजीनियरिंग के
चौथे वर्ष के बैकलॉग्स
तुम्हारे साथ पढ़कर
साफ़ होने लगी थी धुंध
छाई थी जो रोम-रोम पर
छोड़ ही चुका था उम्मीद
उस वर्ष पास होने की
बढ़ रही है
स्मृतियों की छाया
पीछे की ओर
कितने दिनों तक
आकाशवाणी ने बजाए थे
दुख भरे फ़िल्मी गीत
स्वर्गवासी होने पर
फ़ख़रुद्दीन अली अहमद के
और मैं जोड़ता रहा
ईंट से ईंट गाँव में
अपने घर के
उस कमरे की
माँ भी चली गई
बीते चौदह वर्षांे के मध्याह्न
रोया था फूट-फूट जिसके आँचल में
स्मृतियाँ हैं शेष टूटे हुए मन
और छूटे हुए प्रसंगों की अब।