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प्रबल झंझावात, साथी / हरिवंशराय बच्चन
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प्रबल झंझावात, साथी!
देह पर अधिकार हारे,
विवशता से पर पसारे,
करुण रव-रत पक्षियों की आ रही है पाँत, साथी!
प्रबल झंझावात, साथी!
शब्द ’हरहर’, शब्द ’मरमर’--
तरु गिरे जड़ से उखड़कर,
उड़ गए छत और छप्पर, मच गया उत्पात, साथी!
प्रबल झंझावात, साथी!
हँस रहा संसार खग पर,
कह रहा जो आह भर भर--
’लुट गए मेरे सलोने नीड़ के तॄण पात।’ साथी!
प्रबल झंझावात, साथी!