प्रभु! तुम अपनौ बिरद सँभारौ।
हौं अति पतित, कुकर्मनिरत, मुख मधु, मन कौ बहु कारौ॥
तृस्ना-बिकल, कृपन, अति पीडित, काम-ताप सौं जारौ।
तदपि न छुटत विषय-सुख-आसा, करि प्रयत्न हौं हारौ॥
अब तौ निपट निरासा छाई, रह्यौ न आन सहारौ।
एक भरोसौ तव करुना कौ, मारौ चाहें तारौ॥