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प्रभु का पा आशीष देह मानव की पाता / रंजना वर्मा
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प्रभु का पा आशीष देह मानव की पाता
कर झूठा अभिमान व्यर्थ ही जन्म गंवाता
रँगे स्वार्थ के रंग रहे मर्यादा भूले
ऐसे जन का साथ हमें है नहीं सुहाता
जल - भण्डार अपार सिन्धु पर खारा पानी
कण्ठ कण्ठ में प्यास कभी भी बुझा न पाता
किये व्यर्थ के काम समय अनमोल न जाये
अब दुखिया बन बैठ धुने सिर है पछताता
गगन बरसती आग भूमि उगले अंगारे
विकट ग्रीष्म की धूप नहीं तरु छाया पाता
कंकरीट आवास किसी को क्या सुख देंगें
मिटतीं का घर गाँव हमें है बहुत सुहाता
लिया न हरि का नाम हृदय में भक्ति न आयी
भीषण भव - मंझधार राम ही पार लगाता