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प्रभू जी, मुझे भेड़ बना दो / लक्ष्मीप्रसाद देवकोटा / सुमन पोखरेल

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बहुत थक गया हूँ मैं, हे ईश्वर!
भेड़ बना दो मुझे।

यह सिर की उलझन - जो है मेरा घर
यह विचारों का श्राप -
यह जानने का पाप -
यह अंत:करण का हृदय जलाने वाला माप -
यह गिरने के डर का तीन तरह का ताप -
यह चढ़ने का रवाफ -
यह जवाबदेही का अभिशाप।

बस! बस! मैं नहीं चाहता दिव्य रवाफ!
फिर मृत्यु के बाद कुमारी चौक बहीखाता साफ
मीठी मस्त!
जानवरी निरुत्तरदायित्व मुझे,
भगवान।
फावड़ाविहीन जीवन, न कि परिश्रम का श्राप,
मीठा का मतलब हो, चरपचरप खुद फलने वाली घास।

क्यों ये चौवासी व्यंजन?
नकली जीभ?
नकली कान?
एक बहने वाली नाक के लिए इतना सारा अत्तर?
झूठी कल्पना के लिए वेदव्यास और लाखों, लाखों शुक बहत्तर?
अंधकारमय अज्ञान की कठोर खेती!
शरीर को जोत जोत कर?
इतने आँसू, इतनी क्रन्दन बेमतलब!
इतनी हंसी का हिलहिल परिवर्तन की!
हर हर चिता के ऊपर।

इतनी धोखाधड़ी? इतनी तारें बनाई?
सुनो, मेरा कहना!
मजबूत लोग खाएं, मुझे ज्ञान न आए,
सच्चा साधु भेड़ है!
सादा स्वाद हरा होने से, परमेश्वर की निंदा न करे माँ,
इच्छाओं की गिनती कर कपड़े न चुनने पड़ें,
कपड़े न बुनने पड़ें, उग जाए जिस्म भर,
लड़ लूं मैं सींग से,
आध्यात्मिक युद्ध न हो,
मृत्यु हो आसान,
न कि नास्तिक का अणुवत् ध्वंस-समष्टि ज्वलन,
न खींचूं लताओं को, न गिर जाएँ पहाड़ियाँ दुःख के प्रदर्शन के भीतर,
जीवन-लकड़ी बनाने के लिए कृत्रिम झूठी बुद्धि उड़ा कर विचित्र,
भविष्य न डंक मारे।
 
भूत विद्या बन कर सींग पर न बैठे,
सभ्यता की उलझनें न उठाऊं, न उड़ूं यथार्थ को छोड़कर,
आदर्शों की ओर आत्मा न गिरे:
भ्या भ्या से मीठे गान नकली तारों पर न बने,
मेमने का प्रेम करूँ,
केवल पितृभाव प्रभु का मिले।

बस इतनी ही मात्रा में,
मरा तो मर ही गया, परमेश्वर की इच्छा!
सूंघने पे गायब - जीता रहा तो दूध न सूखे तब तक,
जब तक उसका पेट भर न जाए,
या घास सख्त न हो,
खुद को खाने वाला न बने —
डॉक्टर को बुलाना न पड़े।

भयंकर काली चुड़ैल कला की ओर मेरा आत्मा
कभी न दौड़े,
साधु की तरह शून्यता की तरफ न कूदूं,
या कृत्रिम कल्पनाओं से —
जादूहीन सत्य से रंग-बिरंगा,
टेढ़ा जादू न निकालूं,
ब्राह्मण न बनूं दूसरों के पाप धोकर खाने के लिए,
गंदा पानी,
धर्मात्मा की तरह पापों से चेत भर कर —
नरक की ओर पग न बढ़ाऊं,
न सुधारूं— बचाने के लिए इस दुनिया को,
पुराने—फटे हुए कपड़ों से रफू न करूं,
अप्रिय को फेंक दूं,
प्रकृति की साधा सुंदर और असुंदर दीप,
जैसा जीवन जलाऊं।

मरते हुए!
मरते,
साधु से ऊपर पहुँच जाऊं,
ब्राह्मण से भी ज्यादा स्वर्ग,
धर्मात्माओं से ज्यादा सुख का वैकुंठ,
कोई दाग न निकालूं,
दिव्य पशुत्व मुझे प्रभुजी,
कृपा करो, जल्द पकड़ो,
आओ! आओ!
अभी ही मुझे भेड़ बना दो।
०००

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प्रभुजी, भेंडो बनाऊ / लक्ष्मीप्रसाद देवकोटा