भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
प्रभो! यह कैसा बेढब मोह / हनुमानप्रसाद पोद्दार
Kavita Kosh से
प्रभो! यह कैसा बेढब मोह!
मान लिया था मैंने अब तो गया, हुआ निर्मोह॥
पर यह तो फिर लौटा, छाया परिकर-सह सब ओर।
आया परदा पुनः नेत्र-पटलोंपर, किया विभोर॥
हुआ भ्रमित, जल उठी भोग-आकांक्षाकी यह आग।
नहीं तुम्हारा रहा पूर्ववत् आकर्षण-अनुराग॥
पर अब भी तव मृदु चरणोंपर हैं मेरे हिय-हाथ।
वाणी तव मधुमयी, यदपि कुछ क्षीण, सुन रही नाथ!।
इससे आशा अमित, करोगे नहीं कभी तुम त्याग॥
तुम्हें देख, डरकर यह भारी मोह जायगा भाग।
फिर ?यों अब विलब करते, ?यों नहीं पुराते आश ?।
यों इस मोह-कटकका करते नहीं आशु प्रभु! नाश ?।
अब प्रभु! पूर्णरूप से मेरे उर नित करो निवास।
इसका पूरा उन्मूलन हो, हो न कदापि प्रकाश॥