भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रयाण-गीत / गुलाब खंडेलवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


मुकुट नगाधिराज का झुका तनिक सँभाल दो
बढ़ो कि आज शत्रु को स्वदेश से निकाल दो
 
बढ़ो कि आज मोड़नी तुम्हें लहर अनंत की
बढ़ो कि आज तोड़नी, अनी दिगंत-दंत की
 
बढ़ो कि आज काल से जुझार रोपना तुम्हें
बढ़ो कि आज पाप को समूल तोपना तुम्हें
 
बढ़ो कि आज रावणी कलंक मेटना तुम्हें
बढ़ो कि आज कुम्भकर्ण को समेटना तुम्हें
 
बढ़ो कि आज छाँटनी भुजा सहस्रबाहु की
बढ़ो कि आज काटनी किरण मदांध राहु की
 
खड़ी महिष-विमर्दिनी नवीन मुंडमाल को
बढ़ो कि आज अस्थि से नवीन वज्र ढाल दो
 
सभीत केसरी कभी श्रृगाल के बरूथ में
बढ़ो कि गारुडेय ज्यों अजेय सर्प-यूथ में
 
उठा मरुत-सुती चरण समुद दहाड़ते चलो
असेतु  श्रृंग-श्रृंग पर स्वकेतु गाड़ते चलो 
 
कृपाण गंग-धार से विमुक्ति बाँटते चलो  
कटे अराति-शीश से हिमाद्रि पाटते चलो
 
बढ़ो कि शत्रु देख ले कृशानु शंभु-भाल की
बढ़ो कि ज्योति खिल उठे स्वदेश के मशाल की
 
बढ़ो कि आज शत्रु की उठी भुजा उखाड़ दो
जटा उतार राक्षसी प्रशांत बीच गाड़ दो
 
समस्त विश्व साथ है, अमोघ सिद्धि हाथ है
बढ़ो कि चिर अजेय यह उदद्रि स्वर्गमाथ है
 
निवास शंभु का यहाँ न काल का प्रवेश है
बढ़ो कि पंच-स्रोत का अजेय यह प्रदेश है 
 
अजेय विन्ध्य-मेखला, अजेय सिन्धु-श्रृंखला 
अजेय आर्य-भूमि यह अनंत शक्ति-संकुला 
 
बढ़ो कि लोक में झुके ध्वजा न स्वीय नाम की
अजेय जन्म-भूमि यह अशोक, कृष्ण, राम की
 
बढ़ी सतृष्ण जो इधर जयंत-दृष्टि फोड़ दो
बढ़ो कि आज बढ़ रही कलाइयाँ मरोड़ दो
 
मुकुट नगाधिराज का झुका तनिक संभाल दो
बढ़ो कि आज शत्रु को स्वदेश से निकाल दो