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प्रयाण पर अन्योक्ति / नाथूराम शर्मा 'शंकर'

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है परसों रात सुहाग की,
दिन वर के घर जोन का।
पीहर में न रहेगी प्यारी, हा! होगी हम सब से न्यारी,
चलने की करले तैयारी, बन मूरति अनुराग की-
धर ध्यान उधर जाने का।
पतिव्रत से प्यारे पति को, जो पूजेगी धार सुमति को,
ते न विसारेगी दुर्गति को, लगन लगा अति लागकी-
प्रण रोप निडर जाने का।
गंगा पावे सत्य वचन की, यमुना आवे सेवा तन की,
हो सरस्वती श्रद्धा मन की, महिमा प्रकट प्रयाग की-
रच रूपक तर जाने का।
‘शंकर’-पुर को तू जावेगी, सुख-संयोगामृत पावेगी,
गीत महोत्सव के गावेगी, सुधि विसार कुल-त्याग की-
सखी सोच न कर जाने का।