भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रलय / भवानीप्रसाद मिश्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक दिन होगी प्रलय भी;
मिट (मत) रहेगी झोपड़ी,
मिट जायेंगे नीलम-निलय भी|

सात है सागर किसी दिन
फैल एकाकार होंगे,
पंच तत्वों मे गये बीते
बिचारे चार होंगें,
धार मे बहना कहाँ का
अतल तक डुबकी लगेगी;
जागना तब व्यर्थ ही होगा,
अगर जगती जगेगी!
देखने की चीज़ होगी
मृत्यु की वैसी विजय भी|
एक दिन होगी प्रलय भी|

जब समुन्दर बढ़ रहा होगा,
बड़ी भगदड़ मचेगी,
और बडवानल निगोड़ी,
सामने आ कर नचेगी,
क्या बुझाएंगे फायर पम्प
मन मारे जलेंगे,
मौत रानी के यहाँ
उस दिन बड़े दीपक बलेंगे
लजा कर रह जायगी
उस रोज़ विद्युत् की अन्य भी|
एक दिन होगी प्रलय भी|

हर हिमालय श्रृंग पर
उठती लहर की ताल होगी,
और बर्फीली सतह
बडवाग्नि पीकर लाल होगी,
कल होंगी तारिणी गंगा,
तरनिजा व्याल होंगी;
और शिव होंगे न शंकर,
कंठगत नर-नाल होगी;
कर न पायेगा हमें आश्वस्त
जननी का अभय भी|
एक दिन होगी प्रलय भी !

हम की मिट्टी के खिलोने,
बूंद पड़ते गल मरेंगे!
हम की तिनके धार मे बहते,
शिखा छू जल मरेंगे;
नाश की किरणे कि द्वादश
सूर्य से श्रृंगार होगा;
कौन सा वह बुलबुला होगा
कि मत अंगार होगा—
किस तरह वरदा सफल
होंगी बहुत होकर सदय भी|
एक दिन होगी प्रलय भी!

वह प्रलय का एक दिन,
हर दिन सरकता आ रहा है;
काल गायक गीत धीमे ही
सही, पर गा रहा है;
उस महा संगीत का हर
प्राण में कम्पन चला है;
उस महा संगीत का स्वर,
प्राण पर अपने पाला है;
आँख मीचे चल रहा है जग
कि चलता है समय भी|
एक दिन होगी प्रलय भी!

इस दुखी संसार में जितना
बने हम सुख लुटा दें;
बन सके तो निष्कपट मृदु हास के,
दो कन जुटा दें;
दर्द कि ज्वाला जगायें ,नेह
भींगे गीत गायें;
चाहते हैं गीत गाते ही रहें
फिर रीत जायें;
यह कि तब पछतायगी अपनी
विवशता पर प्रलय भी|
मत रहे तब झोपड़ी
मिट जय फिर नीलम निलय भी!