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प्रलाप / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
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विजयिनी बनती हो, तो बनो,
किसे है यहाँ विजय से काम;
वेदना है रग-रग में भरी,
कलप हैं रहे कलेजा थाम।
गर्व गत गौरव का क्यों करें,
हम रहे हैं रौरव-दुख भोग;
फफोलों से है छाती भरी,
उपजते नए-नए हैं रोग।
उमंगें कैसे उसमें भरें,
दूर उसका हो कैसे खेद;
कलेजा जिसका छलनी बना,
हुआ जिसकी छाती में छेद।
वीरता-वैभव को अवलोक
करें वे क्या, जो बने विरक्त;
न जिनमें है जीवन का नाम,
न जिनकी धमनी में है रक्त।
किस तरह वे समझें यह भेद-
है न हिंसक की हिंसा पाप;
काँपते हैं थर-थर जो लोग
समझ करके रस्सी को साँप।
रो रहे हैं, रोने दो, हमें
नहीं भाता है हास-विलास;
हटो, क्या करें तुम्हें लेकर?
कौन हो, क्यों आई हो पास?