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प्रवासी / अजय कृष्ण

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अंतडि़यां ऐंठकर नचती
खाली पेट गड़गड़
तपते रेगिस्तान से गुड़गुड़ाते
प्यासे नल की तरह,
कण्ठ सूखा
मुँह सूखा
ओठों की पपडि़याँ
झरती सूखकर; और
तप्त होकर चारों ओर से
सूखकर झरते बबूर
के काँटे, पिघलते शरीर पर,
चुभते-धँसते हड्डियों में
ऊपर से लहकता अग्निपिण्ड
उझल रहा पिघलाकर
खौला कर आग का दरिया;
वह सनसनाती अग्निकणों
से भरी लहकती धू-धू लू;
पैरों तले वह लप-लप गरम
पीला रेत, चुभते गरम-गरम
कंकड़ पत्थर ।
 
ये दिल्ली है ।
ऐसे परिप्रेक्ष्य में
खोज रहा हूँ मैं
जीवन का सत्य गुत्थम-गुत्था हो बबूर से
लू में लहूलुहान ।
 
पलकर आया हूं ऐसे
मौसम में, जहाँ था
ठण्डा बरगद,
शरीर को गुदगुदाती
बहती कोमल
शान्त गंगा शीतल
सतपुतिया की तरकारी के
साथ भरपेट खाए ताज़ा
गरम-गरम झूर-झूर
रोटियाँ की डकार, वह पाटलीपुत्र ।

(24 मई, 1993)