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प्रवास / बाल गंगाधर 'बागी'

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भूख अपमान से हजारों लोग मरने लगे
अपने लोगों से लोग जब बिछुड़ने लगे
बस्ती-बस्ती घनघोर उदासी छाती रही
खौफ की याद आंखों में घटा लाती रही

खौफ की चादर बिजलियों सा बिखेर दिये
बरसे गरजे और हमारे घरों को तोड़ किये
इसलिये गाँव की बस्ती से निकल जाना था
बधुआ मजदूर वर्ना बेगार पे ही मरना था

जमींदार धन्नासेट धाक उनके रहे
खेत अनाज कुंए तालाब सारे उनके रहे
घोड़े घुड़सवार बैलगाड़ी कहार उनके रहे
ढोलकिया हम पहलवान अखाड़े उनके रहे

वही लठैत डकैत थानेदार वही
वही सज्जन इंसान साहूकार वही
हर बस्ती से तकरार जान माल वही
इजजत लूटे उनके बूढ़े जवान सभी

अक्सर घर आकर काम पे बुलाते रहे
भूखे प्यासे मार बेगार पे खटाते रहे
नंगा बदन गुदड़ी की तरह हो जाता
मेरा मन भी खुल के नहीं था रो पाता

लाठी डंडे कोड़े या फिर झाड़ू से
हजार बार मारे काम पे न आने से
धीरे-धीरे हमारी बस्तियाँ उजड़ती रहीं
अपने वतन से रो-रो के कूच करती रहीं