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प्रवास / राजकमल चौधरी
Kavita Kosh से
अपने गाछीक
फूल-पात नहि चिन्हैत छी
बूझल नहि अछि
वृक्ष सभक, लोक सभक नाम बूझल नहि अछि
एतेक दिन एहि गाममे
अयना भय गेल
मोन जेना कारी-सन अयना भय गेल
हुनका चिन्हबाक चेष्टा करी,
एखनहुँ ई सूझल नहि
आबहु होइए-
एहि प्रकृतिसँ, एहि स्त्रीसँ, एहि नदीसँ
अपरिचिते रहि जाइ; एहि गामसँ धामसँ
प्रवासी होयवाक सभटा दुख, सभटा वेदना-
हम एकसरे सहि जाइ, अपरिचिते रहि जाइ
एतेक दिन एहि गाममे
अयना भय गेल,
मुदा, चिन्हार नहि अछि विकालक
एहि अन्हारमे;
अपने घर-आँगन।
अपने घर-आँगनमे चिकरइ छी
हम अपने टा नाम
प्रवासी, नगरवासी छी हम-ई उपराग
दैत अछि अपने-टा गाम
अपने-टा गाम
(रामकृष्ण झा ‘किसुन’ सम्पादित ‘मैथिलीक नव कविता’सँ: 1997)