प्रवाह / रामदरश मिश्र
एक महकती हुई लहर
साँसों से सट कर
हर क्षण निकल-निकल जाती है।
एक गुनगुनाता स्वर हर क्षण
कानों पर बह-बह जाता है
एक अदृश्य रूप सपने सा
आँखों में तैर-तैर जाता है
एक वसंत द्वार से जैसे
मुझको बुला-बुला जाता है
मैं यही सोचता रह जाता हूँ
लहर घेर लूँ
स्वर समेट लूँ
रूप बाँध लूँ
औ वसंत से कहूँ-
रुको भी घड़ी दो घड़ी द्वारे मेरे
फिर होकर निश्चिंत
तुम सभी को मैं पा लूँ
पर यह तो प्रवाह है
रुकता कहाँ?
एक दिन इसी तरह मैं चुक जाऊँगा
कहते हुए-
आह! पा सका नहीं
जिसे मैं पा सकता था...
बाहर तो वसंत आ गया है
बंद कमरों में बैठकर
कब तक प्रतीक्षा करोगे वसंत की?
सुनो,
वसंत लोहे के बंद दरवाजों पर हाँक नहीं देता
वह शीशे की बंद खिडकियों के भीतर नही झाँकता
वह सजी हुई सुविधाओं की महफिल में
आहिस्त-आहिस्ता आने वाला राजपुरुष नहीं है
और न वह रेकार्ड है
जो तुम्हारे हाथ के इशारे पर
तुम्हारे सिरहाने बैठकर गा उठेगा।
बाहर निकलो
देखो
बंद दिशाओं को तोड़ती
धूलभरी हवाएँ बह रही हैं
उदास लय में झरते चले जा रहे हैं पत्ते
आकाश में लदा हुआ लम्बा-सा सन्नाटा
चट्टान की तरह यहाँ-वहाँ दरक रहा है
एक बेचैनी लगातार चक्कर काट रही है
सारे ठहरावों के बीच
जमी हुई आँखें अपने से ही लडती हुई
अपने से बाहर आना चाहती है
आओ गुजरों इनसे
तब तुम्हें दिखाई पडेगी
धूप भरी हवाओं के भीतर बहती
रंगों की छोटी-छोटी नदियाँ
पत्तियों की उदास लय में से उगता
नए हरे स्वरों का एक जंगल
नंगे पेड़ों के बीच कसमसाता
लाल-लाल आभाओं का एक नया आकाश
चट्टानों को तोड-तोड कर झरने के लिए आकुल
प्रकाश के झरने
कँपकँपाती आँखों के बीच तैरती
अनंत नई परछाइयाँ।
तुम कब तक प्रतीक्षा करते रहोगे वसंत की
बंद कमरों में तुम्हें पता नहीं
बाहर तो वसंत आ चुका है।