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प्रवेशिका / सुधीर सक्सेना
Kavita Kosh से
चूहों से उतना ही डरो,
जितना चूहों से डरते हैं सूरतवासी
मक्खी से उतना ही डरो,
जितना मक्खी से डरता है हर निवाला,
फफूंद से डरो रोटी और चमड़े की तरह
कालिख़ से डरो धवल वस्त्रों की तरह,
डरो और लड़ो इनके आकाओं से अहर्निश
ज़्वालामुखी से डरो,
जितना डरता है पाम्पेई,
समुद्र की लहरों से डरो,
द्वारकानगरी की तरह
विध्वंस से डरो
इन्काओं और मूअनजोदाड़ों की तरह
ख़ालीपन से डरो मक़बरे और ताबूत की तरह
डरो, बस इतना
कि डर कहीं घर न बना ले तुम्हारी देह के घर में ।