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प्रश्नोपनिषद / सुरेश सलिल

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एक प्रश्न अँकुरित हुआ मेरे मन में
तुमने तपाक से एक उत्तर जड़ दिया

प्रश्नों के उत्तर नहीं होते ।
नारद से लेकर पिपल्यादि आदि देवर्षियों, ऋषियों ने
प्रश्नों के उत्तर जो सुझाए हैं
वे उत्तर नहीं प्रति विस्तार हैं, प्रश्नों के ही ।
ब्रह्माण्ड और मानव जीवन के विकास से
 इराक़ पर क़ब्ज़े तक
और सोवियत रूस के विघटन से
   नेपाल की जनक्रान्ति तक
  उत्तर तो नहीं मिले, प्रति प्रश्न ही खड़े हुए ...

प्रदर्शनों के समाधान का भ्रम
कभी ऋषियों को हुआ था
अब राजनेताओं को
और उनके दुमछल्ले विशेषज्ञों को है,
अज्ञों को तो कहाँ - क्यों - कैसे की भाषा में ही
   बात करना आता है
और इस प्रश्नाकुल भाषा का विस्तार
अनादि काल से अनन्त काल तक जाता है ।