प्रश्न आदमी से ही / अनीता ओजायब
प्रकृति के चमकते सितारो से
अम्बर के नीचे पड़े वृक्षो से
नदियो की कलकलाहट से
सागर की तूफानी लहरों से
हमने एक सवाल पूछा
सितारे हम पर हँसने लगे
पत्ते हिलने, गिरने लगे
चट्टानो से आवाज आई
संसार की खुशियाँ कहने लगी
सवाल मत करो।
सवाल मत करो
सृष्टि के इतिहास को मत कुरेदो
जिंदगी की मंजिलों पर खड़े अश्को को
टपकने न दो
सवाल को सवाल रहने दो।
सवाल कैसा था
जिसके जवाब में भी प्रश्न था
जानने की यह इच्छा थी
कि मनुष्य के हमलों को
प्रकृति कैसे सहन करती है।
मनुष्य जाति सिर्फ हमला नहीं करती
प्रकृति का नाश तो करती है
पर ईश्वर का नाम भी लेती है
परमेश्वर को भागीदार बनाती है
अपने साथ भगवान को भी गिराती है।
पत्तों की खड़खड़ाहट में
हम तक सन्देश पहुँचे
कि मनुष्य से लड़े कैसे
वृक्ष कभी किसी को रोके कैसे
अपने फूलों, अपने पत्तों को बचाये कैसे ?
नदियाँ रोती हुई कहे क्या
उन पर तो जैसे ब्रज टूटा
उसके पल्लव में तो गन्दगी है पड़ी
जल की धारा जो सभी के पाप धोती
उसी में है आज कचरा पड़ा
और वास्तविकता यह कि प्रकृति का
क्या दोष है ?
नहीं, प्रकृति का तो कोई दोष नहीं ?
क्योंकि वह आदमी है
जो प्रकृति को गन्दलाता है
अतः प्रश्न आदमी से ही पूछना होगा।