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प्रसवमुखी कविता / नील कमल
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संगीत के सुरों पर
गले की पेशियाँ थिरकती हों
तारों पर अँगुलियाँ विद्युत-सी कौंधे
राग का उन्माद
मस्तिष्क के तन्तुओं में
तरंगित होता रहे
कि तार ही टूट जाएँ
गले की पेशियाँ खिंच जाएँ
राग बिखरने लगे
कोटि-कोटि प्रारब्ध
लिखे जाने से पूर्व मिटें
ईश्वर की भाषा मनुष्य गाएँ
शब्दों का ढेर
पार्थिव शवों में परिवर्तित हो
साहित्य के श्मशान में
कवि गा रहा हो
आशा के गीत
चाण्डाल जलाए देवताओं के लिए दीप
समय गर्भ धारण करे
प्रसवमुखी हो नई कविता
अनुपम, अद्वितीय, अनिंद्य, देवोपम सौंदर्य से बिंधी ।