प्रस्तावना / अभिज्ञात
-अरुण कमल
बीसवीं सदी का आखिऱी दशक राजनैतिक, सामाजिक व आर्थिक क्षेत्रों में कई परिवर्तनों का साक्षी रहा है। कहना न होगा कि रचनाकारों के लिए यह व्यापक चुनौतियों का दौर रहा। अपने विश्वासों को गहराई में पैठकर जांचने-परखने की ज़रूरत थी और आवश्यकतानुसार उसमें रद्दोबदल की पर्याप्त गुंजाइशें रहीं। अभिज्ञात उन लकीर पीटते रहने वाले रचनाकारों में से नहीं हैं, जो तमाम परिवर्तनों से आंखें मूंद कर केवल वह लिखें जो अभ्यासजन्य हो। नयी लड़ाइयों से पुराने ही वैचारिक हथियारों से भिडऩे का प्रमाद उनमें नहीं।
अभिज्ञात ने लगातार यह कोशिश की कि जो कुछ देश-दुनिया में घट रहा है उसे देखें, परखें और अपनी टककी प्रतिक्रियाओं को अपनी रचनाओं में दर्ज होने दें ताकि लेखक होने की जि़म्मेदारी का निर्वाह हो जाये। बीसवीं सदी के अंतिम दशक की रचनाशीलता का गंभीर और तटस्थ मूल्यांकन अभी बाकी है। इस दशक में वैश्विक स्तर पर सोवियत संघ के विघटन के कारण दुनिया का एक ध्रुवीय होना और 1991 में भारत में आर्थिक उदारीकरण व आर्थिक विध्वंस की नीति का लागू होना, 1992 में धार्मिक एवं जातीय सम्प्रदायवाद का उभार इसके मुख्य बिन्दु हैं, जिसने इस कालखण्ड की रचनाधर्मिता को नयी चुनौतियां दीं, जिसके आलोक में तमाम चीज़ों को नये सिरे से देखने की आवश्यकता थी। बीसवीं सदी के अंतिम दशक की घटनाओं को उसके सही परिप्रेक्ष्य में समझने में अभिज्ञात की ये कविताएं मददगार हैं। अभिज्ञात का यह संग्रह समकालीन हिन्दी कविता में एक नये हिमशिखर के उदय का सूचक है। जीवन के छोटे-छोटे ब्यौरों से बेहद दूर तक प्रक्षेपित होने वाले कविता आयुधों का निर्माण एवं अनेक प्रकार की युक्तियों का कुशल प्रयोग अभिज्ञात की विशेषता है। मुझे यह कहने में जऱा भी संकोच नहीं कि अभिज्ञात आज की भारतीय कविता की श्रेष्ठतम दहाई में शामिल हैं। जो अदहन के अंदर चावल था, वही अब पक कर सदाव्रत बन चुका है। 1990 में अभिज्ञात का पहला कविता संग्रह आया था, तब से वे अपने लेखन से सार्थक हस्तक्षेप करते रहे हैं। बीसवीं सदी की आखिऱी दहाई में संकलित उनकी सभी कविताएं दसवें दशक में प्रकाशित उनके विभिन्न कविता संग्रहों से एक चयन है, जो समय को समझने की कवि की मेधा व उसकी समय सापेक्षता और जन से जुड़ी प्रतिबद्धता का भी परिचायक है।