भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
प्रस्थान / ओरहान वेली
Kavita Kosh से
जाते हुए जहाज़ की ओर
ताकता हूँ मैं
स्वयं को
समुद्र में
झोंक नहीं दूँगा मैं
ख़ूबसूरत है यह संसार
मेरे भीतर
घर किए बैठा है मर्दानापन
रो भी तो नहीं सकता मैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह