प्रहसन / अनिल गंगल
इतिहास पटल पर दमक रहे हैं
एक के बाद एक सैकड़ों प्रहसन
जिनके दरम्यान
ऊटपटाँग हास्य चल रहा है विमर्श के रँग में
उन्हें देखते-सुनते ग़ायब हो गई है
हँसने और रोने के बीच की विभाजक रेखा
एक विदूषक छड़ी के सिरे पर
अपनी टोपी नचा रहा है
एक और विदूषक चल रहा है हाथों के बल
एक विदूषक रो रहा है आँखों से गँगा-जमुना बहाते हुए
एक विदूषक दूसरे विदूषक से लगातार मार खा रहा है
एक विदूषक दूसरे विदूषक को लगातार शब्दों से पीट रहा है
नेपथ्य में गूँज रही एक नक़ली रिकॉर्ड की गई हँसी
जिसे सुन कर लोग मुँह में उंगली डाल
खिलखिलाने की मुद्रा में हैं
भूलते हुए
कि हर प्रहसन के पीछे छिपी हैं न जाने कितनी शोकाँतिकाएँ
एक विशालकाय मशीन के कलपुर्ज़ों की खड़खड़ाहट
सुनाई देती है उनकी हँसी में।