प्राचीन ग्रंथागार में / अज्ञेय
हाँ, इसे मैं छू सकता हूँ-उस की लिखावट को :
उस को मैं छू नहीं सकता। वह लिख कर चला गया है।
यहाँ, पुस्तकालय के इस तिजोरी-बन्द धुँधले सन्नाटे में मैं
उस की लिपि की छुअन से रोमांचित हो सकता हूँ
वह-वह चला गया है।
उस के शिकरों ने
मार लिये हैं असंख्य तीतर, बटेर, मुनाल,
उस के घोड़ों ने रौंद ली हैं सैकड़ों फसलें, दुहाइयाँ, अस्मतें,
उस के कवच पर बरस चुके हैं सैकड़ों फूल,
सुन्दरियों के रूमाल, हार-गहने-
उस की बर्छियों पर टँक चुके हैं हिरन, सुअर, हलवाहे, बेगारी,
काफ़िर, विपक्षी सूरमा,
उस की छाती पर चमक चुके हैं जेहादों के सितारे, दंगलों के फ़ीते,
राजकृपाओं के तमगे;
धर्म-गुरुओं की असीसों के सलीब।
मार-काट, खून-खराबा, लूट-पाट करता हुआ
चिंघाड़ और दहाड़ के बीच वह चला गया है
इतिहास के आँगन के पार।
यहाँ, ऐतिहासिक संग्रहालय में, रह गयी है
उस की लिखावट
सनद करती हुई कि उस की उदार अनुकम्पा से ही
पुस्तकालय बना है, खड़ा है, चलता है
और सँभालता है उस की लिखावट
जिसे मैं छू सकता हूँ।
उसे ही मैं नहीं छू सकता :
वह चला गया है।
पर क्या इतिहास भी उसे नहीं छू सकता?
या कि क्या मैं उस के इतिहास को नहीं छू सकता?
पलट दो यह पन्ना; और यह
जिस पर उस की शबीह है; और यह
जो सूना है। और भी इतिहास
बनने को है, बन रहा है :
ग्रन्थागार से सड़क के दूसरी पार
दफ़्तर है अखबार का।