भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्राणमती का अन्तिम मिलन / प्रेम प्रगास / धरनीदास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चौपाई:-

भोर भयो अस बोलु कुमारा। हाथी घोड साजु थनवारा॥
औ पुनि कहयो नकीव प्रकारी। बोलहु सेना सकल हमारी॥
मैना सहित घरी ठहराई। तेहि क्षण कुंअर चल्यो बहराई॥
गौ लखरावहिं लीन उतारा। कुंअरि भवन किहु गवन भुवारा॥
आवहु समदि सकल समुदाई। तौ लगि हम उतरब अमराई॥

विश्राम:-

जहां कुंअर सेना कसकल, जा बटुरी तेहि बाग।
देव बजावहिं दुंदुभी, मुनि जन देखन लाग॥213॥

चौपाई:-

कामिनि नृप आंगन मैं ठाढी। समुझि विछोह भोह मन बाढी॥
समदन लागु कुंअरि परिवारा। सखियन महलन रोय पुकारा॥
पहिले समदु कुंअरि परिवारा। तेहि पाछे जन परिजन सारा॥
तब जत नगर वंधु जत आई। परम प्रीति सन कंठ लगाई॥
तब पुनि समध्यो सकल सहेली। जिन संग नैहर निशिदिन खेली॥
तब रानिन कर पायन परेऊ। मोह अग्नि हृदय उदगरेऊ॥

विश्राम:-

समदति रोवति व्याकुली, थर थर थहरे गात।
उरध श्वास भो सुन्दरी, बकति न आवति बात॥214॥

चौपाई:-

स्नेह शीत जलनित सखि लाई। सीचहिं कुंअरि पान की नाई॥
माता धाय सुता गर लाई। बच्छ हुंकार धाव जनु गाई॥
मयावंध उर दीन संभारा। बिछुरत विरहन भौ दुइफारा॥
बिछुरत दुख किमि कहों बखानी। जापर परै सोई तेहि जानी॥
टूटहि गज मुक्ता मणि हारु। छूटहि उर वंधन शिर वारु॥

विश्राम:-

भरि भरि लोचन ढारहीं, हरि हरि करहिं प्रकार।
अब यहि जनम न होइहे, मिलना यही प्रकार॥215॥

चौपाई:-

समदो फुलवारी शिर नाई। समदि हृदय लै दियो लगाई॥
समदेउ मेंहदी वाल संघाती। जेहि गहि डारि उतारत पाती॥
चहवच्चा जेहि पैसि नहाई। शिव मंडप जंह प्रति दिन जाई॥
समदे बतक परेवा मोरा। मुषक विलैया समदु वहोरा॥
समदेउ पुतरी सहित पिटारी। रचि रचि अपने हाथ संवारी॥

विश्राम:-

पुनि सखि ढांकी चादरी, डारि सुखासन मांह।
प्राणमतिहिं पियले चलो, को गहि राखै वांह॥216॥

चौपाई:-

ध्यानदेव तब कीन विचारा। दूजो मिलन कहां संसारा॥
अब मैं तीर समुद्रहिं जाऊं। पार उतारि पलटि घर आऊं॥
बोलि महथ कंह सौंप्यो राजू। करिहो सावधान सब काजू॥
जब लगि यदुपति मोहि लै आवै। प्रजा लोग कोई दुःख न पावै॥
जत असबाब जहै तैयारा। देहु साथ करि कहो भुखारा॥

विश्राम:-

ध्यान देव चढु पंथपर, महथ मनहि बहुभाव।
नेगिन दान दहेज दै, चलुप दल बादल लाव॥217॥