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प्राणमती का योगीदर्शन / प्रेम प्रगास / धरनीदास

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चौपाई:-

अमर अमर ह्वै जाकी वासा। जे जोगी जन करहिं गरासा॥
युवतिन गायउ मंगल चारा। पारस करहि अनेक प्रकारा॥
वढ़ि घवराहट कुंअर सुभागी। प्रेम मगन मन चितवन लागी॥
सब तन निरख्यो पांतिन पांती। देखि कुंअर मन भैतो शांती॥
सकल भेष मैह शोभित केसे। तारन मांह चन्द्रमा जैसे॥
निरखि स्वरूप मगन भौ नारी। मुरछि परी व्याकुल विकरारी॥

विश्राम:-

कुंअरि अवस्था देखते, सखिन वहुत विषमाद।
तौं लगि प्रगट कियो नहीं, जौं लगि भौ परसाद॥167॥

चौपाई:-

भौ प्रसाद सब वीरा पाये। दै अशीस चलि आसन आये।
तब रनिवासन वात जनाऊ। सुनते चाह सवै उठि धाऊ॥
किये अनेक पतन उपचारा। घरी चार नहिं अंग संभारा॥
पुनि सुधि पलटि कुंअरि के आऊ। रानिहि पूछै वीर सुभाऊ॥
अब कहु मोहि आपन सत भाऊ। सुखमें दुख कंहवाते आऊ॥

विश्राम:-

को मम वैरी प्रगट भौ, ऐसो अद्भुत कीन्ह।
तन कांपै लागे नयन, रह्यो न एको चीन्ह॥168॥