भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्राणमती को स्वप्न / प्रेम प्रगास / धरनीदास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चौपाई:-

तब कह कुंअर सुनो हो माता। सो न चले जो रच्यो विधाता॥
यहि क्षण गौरी कहु मोहि पांहा। योगी है सरवर तट छांहा॥
कहा हमार श्रवण करु येही। राजकुंअर वर पूर्व सनेही॥
पंचवटी है सागरपारा। देवनरायन पिता भवारा॥
विम वंश जानत संसारा। तेहि कुलको यह राजकुमारा॥

विश्राम:-

हम अवराध्यो जाहि लगि, सो वर दीन्हो मोहि॥
राखि सको तो राखहू, धोख धरयो ना मोहि॥169॥