प्राणों के प्राण से / विमल राजस्थानी
मिट्टी की प्रतिमा में मुझको किया प्रतिष्ठित क्यों प्रभु ! बोलो
क्यों मुझको बाँधा है तुमने आठ गाँठ की डोर से
ओ करूणा के अमृत-सिंधु ! क्यों विलग किया आनन्द-स्त्रोत से
क्यों मुझको तट पर ला पटका अपनी एक हिलोर से
सुनता आया हूँ युग-युग से
‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी’
फिर यह कैसी जरा-मरण की-
डाली प्रभु ग्रीवा में फाँसी
घेरे में षट्-रिपुओं के ये प्राण किया करते हैं छटपट
अंधकार सिमटा आता है ज्योति पुरूष ! चहूँ ओर से
सब कहते-यह खेल तुम्हारा
मैं भी इसी खेल का मारा
भटक-भटक कर ऊब गया हूँ
नहीं दिखता कूल-किनारा
बीती ‘आधी रात’, न जाने कब मिलना हो ‘भोर’ से
ओ प्राणों के प्राण ! न जाने-
कब से प्राण पुकार रहे हैं
यह मत समझो-व्याकुल हो
हम जीती बाजी हार रहे हैं
तुम्हें पोंछने ही होंगे ये अश्रु नयन की कोर से
प्रभु ! तुम हो मोम, पिघल जाते पत्थर भी ‘लोर’ से