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प्राण अगर निर्झर से होते / अज्ञेय
Kavita Kosh से
राण अगर निर्झर-से होते पृथ्वी-सा यह मेरा जीवन-
तू होता सुदूर वारिधि-सा तेरी स्मृति लहरों की गर्जन;
प्रणय! अंक तेरे में खोने मैं युग-युग बहती ही बहती,
अथक स्वरों से, अनगिन दिन तक वही बात बस कहती रहती!
हा, विडम्बना! हो निर्वाक् नहीं जो कहते-कहते थकती-
अब वाणी पा कर भी प्रणय! नहीं तुझ से ही हूँ कह सकती!
मुझ में युग-युग हँसते तेरी विपुला आभा के लघु जल-कण
प्राण अगर निर्झर-से होते पृथ्वी-सा यह मेरा जीवन!
1934