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प्राण कहते हो, रहो फिर प्राण बन कर / अमरेन्द्र
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प्राण कहते हो, रहो फिर प्राण बन कर
देह का आधार क्या-तुम बिन।
एक सिहरन-सी बनी मुझमें रहो तुम
देह की वंशी में वायु बन बहो तुम
प्रीत का संसार क्या-तुम बिन।
नयन की यह सेज सज्जित है, सुला दूँ
आ भी जाओ, पट पलक के मैं गिरा दूँ
साँसों का व्यापार क्या तुम बिन।
सोचता हूँ चित्रा जीवन का बनाऊँ
इन्द्रधनु के रंग से जिसको रंगाऊँ
चित्र का आकार क्या तुम बिन।