प्रातः की बेला में / कैलाश पण्डा
प्रातः की बेला में
विश्राम कैसा ?
उठ, जाग
सूक्ष्म स्थूल की यात्राएँ कर
स्वयं को देख
अब चिंतन भी कर
क्षण-क्षण का शोधन कर
स्वरमय हो
देख तेरे अंतः में
कैसा संगीत छुपा है
सूरज की लालिमा से
मन वंचित कैसा ?
तेरा तन है साधन
साधना का अराधना का
एकाग्रचित हो स्थिर हो
कपाल का भ्रमण कर
बिन्दु में जा इन्दु को देख
अमृत की वर्षा से
तन वंचित कैसा ?
काल ही बदला सोचो
तुम नहीं बदले
काल ही बीता सोचो
तुम नहीं बीते
एकाकार करो स्वंय को
सर्वाकार करो
पहले बाँधो फिर मुक्त करो
अनुभव की चादर से
तन वंचित कैसा ?
तेरे भाव जहां जाते हैं
वही तुम्हारा आश्रय समझो
भाव तुम्हें देते हैं युक्ति
चाहो तो ले सकते हो मुक्ति
बाहृय क्रिया अंतः क्रिया को समझो
चित्त को स्वयं लीन करो
तू सबमे सब तुझमे
सत्ता तेरी अलग नहीं है
अंतस की भाषा से
मन वंचित कैसा ?
स्वयं हेतु प्रतिकुल कार्य
देता पीड़ा पराड्मुखता
होता दु:ख गहन औरों को भी
सहते कातर जब हो विषमता
सुख चैन सदा धारण कर
त्याग विषाद प्रवरता से
तन,मन अरू विद्या से
उपकार करे तत्परता से
उठ जाग भंवर में भ्रमित क्यों ?
सागरजल से मन वंचित कैसा ?