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प्रात-प्रपात झरे / रमेश रंजक
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साथी गा वह गीत हो सकें
पतझर-पात हरे
तम का मातम मने धरा पर
प्रात-प्रपात झरे
छन्द किशोर भोर उपजाएँ श्रम का सर्ग खुले
दृग की भागीरथी सती हो मूक रजायसु ले
फिर न कभी शिव द्वारे
दम्भी दुख उत्पात करे
जला स्वेद, समता क्षमता से दीप मनुज मन का
मोल चुकाए धूल धरा की. दम्भी कंचन का
महके गाँव ग़रीब मलिन हों
सर जलजात भरे
कुण्ठा ने कर दी निर्वासित घर की ख़ुशहाली
भुवन न भर पाएगी शीशमहल की उजियाली
ऐसी किरन बिछा युग-युग तक
काली रात डरे